Friday 22 July 2022

उज्जैन

 

Ujjain---- कवि हों या संत, भक्त हों या साधु, पर्यटक हों या कलाकार, पग-पग पर मंदिरों से भरपूर पवित्र नदी क्षिप्रा के मनोरम तट के दाहिने किनारे पर स्थित, कवि कालिदास की नगरी, शाश्वत शहर उज्जयिनी, उन सात प्राचीन पुरी में शुमार है जहाँ मोक्ष की प्राप्ति होती है यह महान सम्राट विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी ।


उज्जयिनी को भारतीय राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान के नाभि केंद्र (मणिपुर कमल) के रूप में वर्णित किया गया है। प्राचीन ग्रंथों में इसका अलग-अलग नाम दिया गया है। अवंतिका, उज्जैन, प्रतिकल्प, कनकश्रंगा, अमरावती, शिवपुरी, चुडामणि, कुमुदवती आदि कुछ ऐसे नाम हैं। कवि कालिदास ने इसे महान विशाला कहा है,

 इन तीर्थों पर सुरम्य घाटों की एक श्रृंखला स्थित है, जिनमें प्रमुख हैं त्रिवेणी, गौ, नृस्म, पिसाचमोचन, हरिहर, केदार, प्रयाग, ओखरा, भैरव, गंगा, मंदाकिनी, सिद्ध तीर्थ

महाभारत में उल्लेख आता है कि कृष्ण व बलराम यहाँ गुरु सांदीपनी के आश्रम में विद्या प्राप्त करने हेतु आये थे। कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की ही राजकुमारी थी।

मत्स्य पुराण के अनुसार   यह वही महाकाल वन था जहाँ ब्रह्मा के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने सभी प्राणियों के कल्याण के लिए कुश घास के आसन पर विराजमान किया था, इसलिए, इस शहर को कुशस्थली के नाम से भी जाना जाता था।इस क्षेत्र में, महाकाल ने ब्रह्मा का सिर काटकर और उनके कपाल को कुचलने के बाद तपस्या की,



 जहां तक उज्जयिनी नाम का संबंध है, पौराणिक कथा अनुसार त्रिपुरा राक्षस, ब्रह्मा द्वारा आशीर्वादित होने के कारण, देवताओं और उनके अनुयायियों के प्रति बहुत क्रूर और अत्याचारी हो गया। अंततः, सभी दिव्य शक्तियों ने भगवान शिव से त्रिपुरा से उनकी रक्षा करने का अनुरोध किया। भगवान शिव ने देवी रक्तदंतिका की पूजा की और उन्हें प्रसन्न करने के बाद महापशुपतास्त्र प्राप्त किया, जिसके प्रहार से राक्षस मारा गया। इस विजय (जीत) के परिणामस्वरूप शहर उज्जैनी या उज्जैन के रूप में लोकप्रिय हो गया।


सी महाकाल वन में भगवान शिव ने राक्षस अंधक का भी वध किया था। यह वह क्षेत्र भी था जहां प्रख्यात भक्त प्रह्लाद ने भगवान विष्णु और भगवान शिव से अभय (निर्भयता) प्राप्त किया था।

उज्जैन का प्राचीन शहर कभी अशोक राजा का निवास हुआ करता था। आज सदियों पुराना यह शहर एक महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थस्थल है, जहां 12 साल में एक बार कुंभ मेला लगता है। उज्जैन में आपको सबसे पहले हरसिद्धि मंदिर जाना चाहिए, जो भारत के 51 शक्तिपीठों में से एक है। 










 Shree Mahakaleshwar Temple   उज्जयिनी के श्री महाकालेश्वर भारत में बारह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण तांत्रिक परंपरा द्वारा केवल 12 ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर में पूजा का महत्व पाया जाता है। महाकाल मंदिर के ऊपर गर्भगृह में ओंकारेश्वर शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है। गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं। दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है। तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की मूर्ति केवल नागपंचमी के दिन दर्शन के लिए खुली होती है।


मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है।  मंदिर का क्षेत्रफल 10.77
x 10.77 वर्गमीटर और ऊंचाई 28.71 मीटर है. महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। 


मंदिर से लगा एक छोटा-सा जलस्रोत है जिसे कोटितीर्थ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिकवा दिया था। बाद में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करायी गयी।




 श्री महाकालेश्वर मंदिर का पुनः निर्माण 1734 ई॰ मराठा के जनरल रनोजी सिंधिया ने करवाया इसके बाद सिंधिया वंश के दौरान मंदिर की विकास कार्य आगे तक चलता रहा। सन १९६८ के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व मुख्य द्वार का विस्तार कर सुसज्जित कर लिया गया था।


 इसके अलावा निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण भी कराया गया था। लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को दृष्टिगत रखते हुए बिड़ला उद्योग समूह के द्वारा १९८० के सिंहस्थ के पूर्व एक विशाल सभा मंडप का निर्माण कराया। हाल ही में इस मंदिर के 118 शिखरों पर 16 किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई है।  



अब मंदिर में दान के लिए इंटरनेट सुविधा भी चालू की गई है श्री महाकालेश्वर मंदिर में गुरुवार सुबह हुई भस्म आरती में बाबा महाकाल का भगवान गणेश के रूप में भांग, चंदन और सिंदूर से श्रृंगार किया गया। सुबह मंदिर के पट खुलने के बाद महाकाल को ठंडे जल से स्नान कराया गया। मंत्रोच्चार के साथ दूध दही घी शक्कर रस के पंचामृत से अभिषेक पूजन किया गया। मनमोहक श्रृंगार किया गया। महानिर्वाणी अखाड़े की और से भगवान महाकाल को भस्म अर्पित की गई।वस्त्र, सिर पर रजत मुकुट धारण किया महाकाल ने। रजत के रुद्राक्ष ,गुलाब और गेंदे से बनी फूलों की माला अर्पित की गयी। फलों और मिष्ठान का भोग लगाया भस्म आरती में बड़ी संख्या में पहुंचे श्रद्धालुओं ने बाबा महाकाल का आशीर्वाद लिया।




हरसिद्धि मंदिर




हरसिद्धि मंदिर (Harsiddhi Temple) सबसे प्राचीन मंदिरों में से है |हरसिद्धि मंदिर का निर्माण देवी अहिल्याबाई होलकर ने 21 मार्च 1766 को कराया था| उस समय उनके पुत्र श्रीमंत मालेरावजी इंदौर के राजा थे | हरसिद्धि मंदिर में महासरस्वती और महालक्ष्मी की मूर्तियों के बीच गहरे लाल रंग में चित्रित अन्नपूर्णा की एक मूर्ति है  हरसिद्धि मंदिर में देवी की दिव्य मूर्ति पूर्वाभिमुखी महिषासुर मर्दिनी मुद्रा में विराजमान है|माता की यह मूर्ति चार भुजाओं वाली है | दाहिनी भुजा में खड्ग व त्रिशूल तो बायीं भुजा में घण्टा व मुण्ड लिए हुए माता की यह मूरत भक्तों की भावना और आस्था का प्रतिक हैं | पं. जनार्दन भट्ट हरसिद्धि मंदिर के पहले पुजारी थे|





वर्ष में दो बार चैत्र नवरात्रि की दशमी और अश्विन मास की दशमी को माँ का विशेष श्रृंगार किया जाता है| देवी का अभिषेक ब्रह्म मुहूर्त में और आरती सुबह सा़ढ़े 7 10 बजे तथा रात 9 बजे होती है|

रूद्र सागर तालाब के सुरमई तट पर -महाकाल मंदिर के पास -51 शक्ति पीठों मे से एक - विक्रमादित्य की आराध्य देवी -हरसिद्धि देवी का सिद्ध शक्ति पीठ मंदिर स्तिथ है  जो अपनी चमत्कारी शक्तियों - जगमगाते हुए रत्नो के सामान दिव्या रौशनी से प्रकाशमान  1011 दीपों से सुसज्जित 2 दीप सतम्भो  के अलौकिक दृश्य, अवर्णनीय शोभा आरती  के कारण भारत ही नहीं विश्व भर मे प्रसीद है शंख की धवनि -नगाड़ो के स्वर  के मध्य स्वयंसेवक रोज अपनी जान पर खेल इस अलौकिक दृश्य की रचना करते है- लोक मान्यता अनुसार हरसिद्धि माता गुजरात में रहती थी -राजा विक्रमादित्य अपने तप से माँ को उज्जैन ले आए - आज भी माता सुबह गुजरात मे रहती है शाम को आरती के समय  माँ हरसिद्धि मंदिर में प्रवेश करती है –

आज भी उज्जैन में माता की आरती शाम के समय होती है और सुबह के समय गुजरात में होती है।


यह देवी के 51 शक्तिपीठों में से 13वां शक्तिपीठ है। जिसका निर्माण देवी अहिल्याबाई होलकर ने 21 मार्च 1766 को कराया था- मंदिर के चार प्रवेश द्वार है  मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते ही सामने मां हरसिद्धि के वाहन सिंह की विशाल प्रतिमा है। द्वार के दाईं ओर दो बड़े-बड़े नगाड़े रखे हैं, जो प्रातः सायं आरती के समय बजाए जाते हैं। गरब ग्रह मे हरसिद्धि देवी = पीछे माँ अन्नपूर्णा  देवी -नीचे महा काली - द्वार पर भैरव जी है मंडप गृह मे श्री यंत्र ,51 देवी के चित्र  , मंदिर के सामने में 51 फीट ऊंचे दो बड़े दीप स्तंभ हैं। जिसे जलाने के लिए एक बार में 60 लीटर तेल व बाती के लिए 4 किलो रुई की की आवश्यकता होती है

मंदिर के पूर्वी द्वार पर बावड़ी है, जिसके बीच में एक स्तंभ है, जिस पर संवत 1447 अंकित है 






गुप्त कमरे मे अखंड ज्योति महामाया माँ का रूप है  महासरस्वती और महालक्ष्मी की मूर्तियों के बीच गहरे लाल रंग में चित्रित अन्नपूर्णा की एक मूर्ति है

 हरसिद्धि मंदिर में देवी की दिव्य मूर्ति पूर्वाभिमुखी महिषासुर मर्दिनी मुद्रा में विराजमान है

दीपक राग गा कर शिव शक्ति के प्रतीक दोनों डीप स्तम्ब प्रजलवित किया जाते थे-

इस मंदिर के प्रांगण में शिवजी का कर्कोटकेश्वर महादेव मंदिर भी है जो कि चौरासी महादेव में से एक है जहां कालसर्प दोष का निवारण होता है एक मंदिर विघ्नहर्ता गणेश जी को समर्पित है


हरसिद्धि मंदिर परिसर में शंकरजी व हनुमान जी के मंदिर भी हैं| जिन्हे बाद में बनवाया गया 




कहते है हरसिद्धि मंदिर  के सामने कभी एक पक्की बाव़ड़ी हुआ करती थी
| माँ की मूर्ति इसी बाव़ड़ी से मिली थी| एक अन्य कथा के अनुसार महाराजा मल्हारराव होलकर को युद्ध से लौटते समय इस मूर्ति के दर्शन हुए थे| जहां विक्रमादित्य  ने दी थी अपने सिर की बलि 11 times 






  Gopal Mandir Temple-- कृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी पर जहां देश भर में कान्‍हा की पूजा में उनके भक्‍त डूबे हैं वहीं एक ऐसा मंदिर भी है जहां कान्‍हा के जन्‍म के बाद उनकी आरती नहीं उतारने की परंपरा है। क्‍योंकि यह परंपरा करीब 110 सालों से चली आ रही है। जी हां यह उज्जैन के श्री द्वारकाधीश गोपाल मंदिर में एक अनूठी परंपरा है। यहां जन्म के बाद कन्हैया पांच दिनों तक सोते नहीं हैं। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म (जन्माष्टमी) के बाद रोज होने वाली शयन आरती पांच दिनों तक नहीं होती है। मान्यता के अनुसार बछबारस पर भगवान बड़े हो जाते हैं। इस दिन सुबह अभिषेक पूजन के बाद उन्हें चांदी की पादुका पहनाई जाती है। चांदी की यह पादुका सिंधिया राजवंश की है। श्री द्वारकाधीश गोपाल मंदिर का निर्माण संवत् 1909 में सिंधिया राजवंश की महारानी बायजाबाई सिंधिया ने कराया था। अत्यंत कलात्मक व भव्य मंदिर में भगवान द्वारकाधीश पटरानी रुक्मिणीजी के साथ विराजित हैं।

Chaubis Khamba Temple

एक भव्य संरचना, चौबीस खंबा मंदिर उज्जैन में घूमने के लिए एक और लोकप्रिय पवित्र स्थान है। मनोरम संरचना 9वीं या 10वीं शताब्दी की है। इस मंदिर में आप स्थापत्य कला का एक सुंदर उदाहरण देख सकते हैं। प्रवेश द्वार मंदिर के संरक्षक देवी-महालय और महामाया की छवियों को प्रदर्शित करता है  इस मंदिर में दर्शन आप सुबह 5:30 बजे से शाम 6 बजे के बीच कर सकते हैं।




श्री चारधाम मंदिर उज्जैन 

 यहां पर श्री द्वारका धाम, श्री रामेश्वर धाम, श्री बदरीनाथ धाम और श्री जगन्नाथ धाम के दर्शन करने के लिए मिलते हैं। यहां पर मां वैष्णो माता की गुफा भी बनाई गई है। वैष्णो माता की गुफा में प्रवेश के लिए 5 रूपए का शुल्क लिया जाता है। वैष्णो माता की गुफा के बाहर ही, शंकर जी श्री कृष्ण जी गणेश भगवान जी और नरसिंह भगवान  कृष्ण भगवान के विराट रूप और शिव भगवान जी के भी दर्शन किए जा सकते हैं। यहां पर 12 ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गई है। मंदिर में गार्डन बना हुआ है, जहां पर आप बैठकर शांति से अपना समय बिता सकते हैं। यहां पर गौ माता के लिए गौशाला भी बनी हुई है। यहां पर पर्यटक के रुकने की व्यवस्था भी है। चार धाम मंदिर में धर्मशाला बनी हुई है।





रणजीत हनुमान मंदिर (Ranjeet Hanuman Temple) का स्तित्व : बात

 है वर्ष 1907 की तब पहलवानी का शौक रखने वाले भारद्वाज ne इस

 वीरान वन क्षेत्र में पतरे की ओट  लगाकर हनुमानजी की प्रतिमा स्थापित

 कर दी और छोटा-सा अखाड़ा बना दिया। विशेष बात यह है कि इस

 मंदिर में कोई द्वार नहीं है,रामनवमी और हनुमान जयंती पर यहां विशेष 


श्रृंगारअनुष्ठान, पूजा-पाठ और आरती की जाती है।
रणजीत हनुमान 

मंदिर प्रांगण में  शनिवार के दिन दोपहर में एक  विशेष आरती होती हैं


  Bharat Mata Mandir== 2018 में माधव सेवा न्यास की ओर से निर्मित भारत माता मंदिर का लोकार्पण 4 जनवरी को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और वात्सल्यग्राम की अधिष्ठात्रि ऋतंम्भरा द्वारा किया गया था मंदिर का निर्माण गर्भगृह सहित 3000 वर्ग फीट है। मंदिर का खुला क्षेत्र 3000 वर्ग है। जमीन से शिखर तक की ऊंचाई 101 फीट है। तीन तल ke मंदिर का निर्माण में धोलपुर के लाल पत्थरों का उपयोग किया गया है प्रथम तल पर ध्यान केंद्र,, पुस्तकालय द्वितीय तल पर 120 लोगों के बैठने का ऑडिटोरियम  तृतीय तल पर भारत माता की मार्बल 16 फीट प्रतिमा सुशोभित है तथा दीवार पर चारों और नवदुर्गा की प्रतिमा विराजित की गई है। साथ ही भारत माता का एक किलो सोने से निर्मित मुकुट शीश पर धारण किए हैं। मंदिरों में कुल 5 द्वार का निर्माण कर कांच लगाए गए हैं,





विक्रमादित्य का मंदिर --शक्तिपीठ हरसिद्धि मंदिर के समीप उज्जयिनी के सम्राट राजा विक्रमादित्य का मंदिर है। 500 साल पुराने इस मंदिर के पुजारी पं.अखिलेश जोशी सम्राट विक्रमादित्य के मंदिर में सेवा पूजा करने वाले पांचवीं पीढ़ी के सदस्य हैं। वे बताते हैं उनके परिवार के पास भोज पत्र पर बना एक यंत्र है। इसमें विश्व का नक्शा दिखाई देता है, मध्य में एक भ्रूण की आकृति नजर आती है। इस स्थान को उनके पर दादा पृथ्वी का नाभि केंद्र बताते थे। वह स्थान मंदिर में स्थित विक्रमादित्य की मूर्ति के पैर के नीचे है। कालांतर में राजा जयसिंह ने मोक्षदायिनी शिप्रा के गऊघाट के समीप यंत्र महल का निर्माण कराया। जहां से 100-100 साल के पंचाग की गणना होने लगी। मंदिर में प्रतिदिन राजा विक्रामादित्य की आरती पूजा होती है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर विशेष उत्सव मनाया जाता है।




Bade Ganeshji Ka Mandir---- गणपत‍ि बप्‍पा का यह अनोखा मंद‍िर उज्जैन

 के महाकाल के मंदिर के बिल्कुल नजदीक झील के किनारे स्थित है। इस 

मंदिर में भगवान गणेश की एक विशाल प्रत‍िमा है। आकार की वजह से इन्‍हें 

बड़े गणेशजी के नाम से जाना जाता है। गणेश जी की इस विशालकाय

 प्रतिमा को तैयान करने में लगभग ढाई वर्ष का समय लगा था।



यह मूर्ति करीब 18 फीट ऊंची और 10 फीट चैड़ी है। मूर्ति के दोनों ओर रिद्धि और सिद्धि की मूर्तियों है। गणेश जी की इस मूर्ति की सूंड दक्षिणावर्ती दिखाई गई है जो बहुत ही कम देखने को मिलती है। कहा जाता है कि इस विशाल प्रतिमा को बनाने में सीमेंट का प्रयोग बिलकुल भी नहीं किया गया है। बल्कि सिमेंट के स्थान पर इसमें गुड़ और मेथीदाने का उपयोग किया गया है। एक और खास बात यह है कि इसमें देश की सात मोक्ष पुरियों- सहित अन्य अनेकों प्रमुख तीर्थ स्थलों की मिट्टी और पवित्र जल लाकर भी इस मूर्ति के निर्माण में उपयोग किया गया है। बड़ा गणेश  मंदिर में आज भी ज्योतिष विज्ञान, संस्कृत भाषा, पूजा-पाठ विधि और नैतिक शिक्षा का परंपरागत ज्ञान बांटा जाता है।

लेकिन इस मंदिर का असली आकर्षण इस मंदिर के मध्य भाग में स्थित

 अष्टधात्तु यानी आठ धातुओं से बनी पंचमुखी हनुमान जी की एक दुर्लभ मूर्ति

 को बताया जाता है।


इसके अलावा इस मंदिर में भगवान कृष्ण और माता यशोदा को भी मूर्ति

 रूप में दिखाया गया है जिसमें माता यशादा कृष्ण को स्तनपान करती हुई

 दिख रही है। इसके अतिरिक्त इस मंदिर परिसर में एक नवग्रह मंदिर भी

 बना हुआ है।



Sandipani Ashram-
वैष्णव संप्रदाय के भक्तों के लिए मंगलनाथ रोड स्थिति सांदीपनि आश्रम  शीर्ष तीर्थों में शामिल है।  शास्त्रीय मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण यहां अध्ययन के लिए मथुरा से 5229 वर्ष पूर्व पैदल चलकर आए थे।  सांदीपनि का अर्थ है जो स्वयं भी ज्ञान से प्रकाशित हो और दूसरों को भी करे। गुरु सांदीपनि के वंशज पुजारी पं.रूपम व्यास अनुसार   भगवान श्रीकृष्ण भ्राता बलराम के साथ उज्जैन में गुरु सांदीपनि से विद्या ग्रहण करने आए थे।
सांदीपनि आश्रम पूर्व में होलकर राजवंश के आधिपत्य में था। राजवंश की ओर से ही आश्रम के संचालन के लिए अंकपात नाम से एक संस्थान बनाया गया था। आज भी इस संस्थान के नाम से सांदीपनि मुनि के वंशज व्यास परिवार द्वारा व्यवस्थाएं संचालित की जाती हैं।-प्राचीन उज्जैन अपने राजनीतिक और धार्मिक महत्व 

के अलावा, महाभारत काल की शुरुआत में शिक्षा का प्रतिष्ठित केंद्र था

भगवान श्री कृष्ण और सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में नियमित रूप से 

शिक्षा प्राप्त की थी। महर्षि सांदीपनि का आश्रम मंगलनाथ रोड पर स्थित हे

आश्रम के पास के क्षेत्र को अंकपात के नाम से जाना जाता है, माना जाता है 

कि यह स्थान भगवान कृष्ण द्वारा अपनी लेखनी को धोने के लिए इस्तेमाल 

किया गया था।

माना जाता है कि एक पत्थर पर पाए गए अंक
1 से 100 तक गुरु सांदीपनि 

द्वारा उकेरे गए थे।पुराणों में उल्लिखित गोमती कुंड पुराने दिनों में आश्रम में 

पानी की आपूर्ति का स्रोत था।नंदी की एक छवि तालाब के पास शुंग काल 

के समय की है।

वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी इस स्थान को वल्लभाचार्य की
84 सीटों में से 73 

वीं सीट के रूप में मानते हैं जहां उन्होंने पूरे भारत में अपने प्रवचन दिए। 

सांदीपनि आश्रम में विद्याध्ययन के दौरान भगवान श्रीकृष्ण मित्र सुदामा के 

साथ वन में लकड़ियां लेने गए थे। लौटने में समय लग गया और उन्हें रात्रि 


विश्राम करना पड़ा। धर्म कथा के अनुसार इसी स्थान पर सुदामा ने भगवान 


श्रीकृष्ण से छुपाकर चने खाए थे।

कृष्ण एक बहुत नटखट बच्चे , एक बांसुरी वादक  , एक चतुर राजनेता,

 महायोगी , भयंकर योद्धा, और ऐसे अवतार हैं जो जीवन के हर रंग को अपने

 भीतर समाए हुए हैं। अगर आप कृष्ण को समझना चाहते हैं, तो उज्जैन के

 संदीपनी आश्रम मे नयी बनाई गई कला दीर्घा की यात्रा आवश्यक है इस कला

 दीर्घा में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सीखी गई  64 विद्याओं और और उनसे जुड़ी

 कला का संक्षिप्त उल्लेख  चित्रों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है।


ध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग ने कला दीर्घा का निर्माण करवाया है। ब्रज की

 धरती पर भगवान श्रीकृष्ण की ग्वाल बाल के साथ होली की कथाएं बहुत

 प्रचलित हैं। यह जानना भी कम रोचक नहीं है कि होली खेलने में फूलों के

 जिन रंगों का उपयोग होता है, श्रीकृष्ण ने उन्हें बनाने की कला  गुरु सांदीपनि

 के आश्रम में सीखी थी। कला दीर्घा में भी इसका उल्लेख मिलता है।  पुजारी

 पं.रूपम व्यास अनुसार  भगवान श्रीकृष्ण  ने 64 दिन में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर

 लिया था। इस अवधि में श्रीकृष्ण ने 64 विद्या और 16 कलाओं का ज्ञान प्राप्त

 किया था।

समें गीतकला, वाद्यकला, नृत्यकला, नाट्यकला , धनुर्विद्या, अस्त्र मंत्रोपनिषद,

 इंद्रजाल, गज एवं अश्वरोहण , शस्त्र, शास्त्र व धर्म सहित फर्नीचर से लेकर इत्र

 बनाने की विद्या आदि के साथ फूल व पत्तियों से रंग बनाने की कला भी

 शामिल है। गुरु सांदीपनि ने श्रीकृष्ण को रंग बनाने के साथ कपड़ों पर छापे

 लगाने आदि की कला भी सिखाई थी। भगवान को यहां पिचकारी में जल

 भरकर छोडऩे की जल क्रीड़ा का ज्ञान भी प्राप्त हुआ था।



Vikramaditya The Great Memorial Statue- प्रतिमा को इंदौर स्थित मूर्तिकार महेंद्र कोडवानी द्वारा तराशा 1 crore se सम्राट विक्रमादित्य पूरे 1999 साल बाद एक बार फिर अपने सिंहासन बत्तीसी पर विराज गए हैं.



सम्राट के साथ उनके दरबार के नौ रत्न और सिंहासन की 32 पुतलियां भी सजीव हो गई हैं. 


सम्राट की 35 फीट बड़ी मूर्ति--- करीब 6.73 करोड़ रुपए की लागत से बनी 

इस मूर्ति के साथ ही विक्रमादित्य के नौ रत्न धन्वन्तरि, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, वेतालभट्ट (या (बेतालभट्ट), वररुचि और वराहमिहिर की भी चार-चार फीट की मूर्तियां स्थापित की गई हैं.

आर्किटेक्ट अशोक भार्गव और उनके 100 साथियों को करीब पांच महीने का वक्त लगा. इसके खर्च के लिए उन्हें 6.73 करोड़ रुपए नगर निगम की ओर से दिए गए.



Siddhavat---- उज्जैन के शिप्रा के तट पर प्रचीन सिद्धवट -शक्तिभेद तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। ये वृक्ष तीनों प्रकार की सिद्धि देता है इसीलिए इसे सिद्धवट कहा जाता है।  पुराणों में भी इस जगह का वर्णन किया गया है। स्कंद पुराण के अवंतिका खंड इस बात का उल्लेख किया गया है कि उज्जैन के सिद्धवट क्षेत्र में गणेश पुत्र भगवान कार्तिकेय का मुंडन संस्कार हुआ था। 


इस जगह पर आपको तीन तरह की सिद्धि मिलती है जिनका नाम है संतति संपत्ति और सद्‍गति। इन तीनों मन्नतों को पूरा करने के लिए यहां पर पूजन किया जाता है। 


संतति अर्थात पुत्र की प्राप्ति के लिए उल्टा सातिया ( स्वास्तिक ) बनाया जाता है। संपत्ति के लिए वृक्ष पर रक्षा सूत्र बाँधा जाता है। सद्‍गति अर्थात पितरों के लिए अनुष्ठान किया जाता है।


कहा जाता है कि मुगल काल में बरगद के इस वृक्ष नष्ट करने के लिए उस पर लोहे के बहुत मोटे-मोटे तवे जड़वा दिए थे। इसके बाद भी इस वृक्ष के फिर से अंकुर फूट निकले और आज भी ये वृक्ष हरा-भरा है।



श्री राम घाट यहां का सबसे पुराना घाट है जिसे रामघाट भी कहा जाता है । क्षिप्रा नदी को स्वच्छता की देवी कहा जाता है और श्रृद्धालुओं के द्वारा इसकी पूजा की जाती है । माना जाता है कि यह वह स्थान है जहां भगवान राम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ यहां स्नान करते थे


राम घाट क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन के प्रसिद्ध घाटों में से एक है
, - श्री राम जी ने राम घाट के किनारे भगवान शिव की पूजा करी थी। इसलिए इस घाट को रामघाट के नाम से जाना जाता है। घाट पर स्थित मंदिरों की एक विस्तृत श्रृंखला है, जिनमें से चित्रगुप्त का मंदिर सबसे अधिक पूजनीय है।यहां पर कालसर्प पूजा और पित्र दोष पूजा होती है। यहां पर राहु केतु को शांत करने के लिए भी पूजा की जाती है।

राम घाट हिंदुओं के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व का है क्यों कि इसे कुंभ समारोह के संबंध में सबसे पुराने स्नान घाटों में से एक माना जाता है - हर 12 साल में कुंभ मेला लगता है। लगभग 2 करोड़ लोग मेले में शामिल होते हैं।

पौराणिक कथा अनुसार कुछ लोक मान्यताएं

1 एक बार भगवान शिव विष्णु जी के पास भिक्षा लेने गए -विष्णु जी  ने भिक्षा देते हुए भगवन शिव को ऊँगली दिखा दी - शिव ने अपने त्रिशूल से उनकी ऊँगली काट दी - वो खून विष्णु लोक से धरती पर आ गिरा तथा शिप्रा नदी मैं परिवर्तित हो गया  -

  2  माना जाता है कि भगवान विष्णु ने राम घाट पर अमृत की कुछ बूंदें डालीं।

 3 वाराणसी की तरह यहाँ भी -नजदीक के शमशान घाट पर शाम के बाद भी चिता  जलाई जाती है  यही से भस्म आरती की राख जाती थी – अब तो कंडे की राख से भस्म आरती होती है 4 भगवन राम ने अपने पिता जी की मृत्यु के बाद उनका तरपन यही किया था


शाम की क्षिप्रा आरती राम घाट पर सबसे अच्छे आकर्षणों में से एक है। घाट के किनारे गुरु नानक साहब जी का गुरुद्वारा भी देखने के लिए मिलता है। यह गुरुद्वारा रामघाट के दूसरे तरफ है। घाट के दूसरे तरफ जाने के लिए पुल बना हुआ है रामघाट के किनारे पिशाचमुक्तेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित है। पिशाचमुक्तेश्वर महादेव मंदिर 84 महादेव मंदिरों में से एक है। राम मंदिर घाट से सूर्यास्त देखना सबसे आकर्षक दृश्यों में से एक है।श्री वेदमाता गायत्री मंदिर, नागचंद्रेश्वर मंदिर ,रामघाट के दूसरे तरफ भूखी माता का मंदिर है




भरथरी की गुफा या भर्तृहरि की गुफाएं उज्जैन शहर का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। भर्तृहरि की गुफाएं गोरखनाथ मठ के द्वारा प्रबंधित की जाती है। यहां पर दो गुफाएं है। इनमें से एक गुफा भूमिगत है। भूमिगत गुफा में जाने के लिए बहुत सकरा रास्ता है और नीचे जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है।


आप गुफा के नीचे जाएंगे। तो नीचे एक बड़ा सा हॉल है और भगवान शिव का शिवलिंग विराजमान है। यहां पर आप आकर बहुत अच्छा लगेगा और बहुत शांति वाला माहौल रहता है। दूसरी गुफा में भी शिवलिंग विराजमान है। इस शिवलिंग को नीलकंठेश्वर शिवलिंग कहा जाता है। भर्तृहरि गुफा के पास मंदिर भी बना हुआ है और यहां पर बहुत सारे देवी देवता विराजमान है।


गुफा नंबर दो बहुत सकरी है। इस गुफा की ऊंचाई ज्यादा नहीं है। इस गुफा में गोपीचंद जी का साधना स्थल गुफा में अंदर जाकर शिवलिंग विराजमान है। इस शिवलिंग को नीलकंठेश्वर शिवलिंग के नाम से जाना जाता है। गुफा में लाइट की पूरी व्यवस्था है



यहां पर गौशाला बनी हुई है, जहां पर उच्च कोटि की गायों को रखा गया


 

जंतर मंतर
, "यंत्र मंत्र" का अपभ्रंश रूप है। सवाई जयसिंह ने ऐसी वेधशालाओं का निर्माण जयपुर, उज्जैन, मथुरा, दिल्ली और वाराणसी में भी किया था। पहली वेधशाला 1725 में दिल्ली में बनी। इसके 10 वर्ष बाद1734 में जयपुर में जंतर मंतर का निर्माण हुआ। 

इसके 15 वर्ष बाद 1748 में मथुरा, उज्जैन और बनारस में भी ऐसी ही वेधशालाएं खड़ी की गईं।जंतर मंतर, दिल्ली  जंतर मंतर, जयपुर  जंतर मंतर, उज्जैन  जंतर मंतर, मथुर  जंतर मंतर, वाराणसी--


यहाँ चार यंत्र लगाये गये हैं —समरात यंत् नाद वलम यंत्र दिगांरा यंत्र मिट्टी यंत्र यहां की प्रसिद्घ वेधशाला जयपुर नरेश सवाई जयसिंह द्वितीय ने सन 1733 में बनवाई थी जिसका जीर्णोद्घार सन 1925 में हुआ था।





Triveni Ghat Sri Saneeshwara Navagraha Temple \ महाकाल की नगरी में शिप्रा नदी के किनारे योगेश्वर महादेव मंदिर के नीचे जमीन से एक बड़ी जलधारा निकली है, जिसे गुप्त गंगा के नाम से जाना जाता है। यहां तीन नदियों का संगम होता है


इस स्थान को त्रिवेणी घाट  के नाम से भी जाना जाता है। त्रिवेणी घाट पर प्राचीन शनि नवग्रह मंदिर है

जहां शनिश्चरी अमावस्या और शनि जयंती पर लाखों श्रद्धालुओं का जमघट रहता है

गढ़कालिका मंदिर

आस्था ,निष्ठा पूजा का केंद्र -तांत्रिक विद्या का गढ़ उज्जैन के गढ़ नामक स्थान पर स्थित,51 शक्तिपीठों मे से एक, सिद्ध शक्ति पीठ ,गढ़कालिका मंदिर माँ कलिका को समर्पित मंदिर है - - गड नामक स्थान पर होने के कारण इसका नाम गड कलिका हो गया - लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार भगवन श्री राम जब रवां  कर अयोध्या वापिस जा रहे थे तो इस क्षेत्र मे ठहरे थे -माँ कलिका ने हनु मान को खाने का पप्रयास  किया हनुमान जी ने विकराल रूप धारण कर लिया - देवी चली गयी परन्तु उनका कुछ अंश कला हो कर यही गिर गया - और कालिका कहलाया 

उज्जैन में हरसिद्धि के बाद दूसरा शक्तिपीठ गढ़कालिका मंदिर को माना गया है। - हिन्दू धर्म के ज्ञाता लोगो के अनुसार शक्तिपीठ वो स्थान है जहाँ पर भगवती सती के अंग या आभूषण गिरे थे  -महामाया आदिशक्ति की जाग्रत शक्तियों वाले स्थान सिद्ध शक्ति पीठ कहे जाते हैं। सिद्धपीठों पर देवी देवताओं की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा नही होती बल्कि मूर्तियां स्वयं प्रकट या स्वयं सिद्ध होती है विष्णु के चक्र से सती के शरीर के छिद्रण के दौरान जिन जिन स्थलों पर सती के शरीर के अंग गिरे वहां वहां देवी तीर्थों की स्थापना हुई। भगवन शिव ने स्वयं इन स्थलों में शक्ति की साधना की और भैरवों की स्थापना की। वहीं यह स्थल सिद्धि शक्ति पीठ कहलाए ।देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है, तो वहीं देवी भागवत में 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, जबकि तंत्र चूड़ामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं

वहीं 12 शक्ति पीठ महासिद्ध शक्ति पीठ कहे गए, जो इस प्रकार हैं :.शक्ति पीठ

1 - अम्बा (गुजरात), 2- कामाख्या (गुवाहाटी ), 3- कुमारी(कन्याकुमारी) ), 4- कालिका (उज्जैन), 5- गुह्यकेश्वरी(नेपाल), 6- भ्रमराम्बा(श्रीशैलम), 7 – ललिता(प्रयाग), 8- महालक्ष्मी (कोल्हापुर), 9- मंगलावती (गया), 10- विंध्यवासिनी (विंध्यांचल), 11- त्रिपुरसुन्दरी(बंगाल), एवं 12- विशा-varanasi

पहले जानते है इस मंदिर की रहस्य मई बातें

1-- 12  शक्तिपीठो मे इसका स्थान 6 है यहाँ भैरव पर्वत पर सती के होंठ गिरे थे

2 तांत्रिक विद्या की किताब -त्रिपुरा रहस्य माहात्म्य अनुसार --- तांत्रिक क्रिया के लिए इस मंदिर की विशेष महत्व है कई तांत्रिक इस मंदिर में आते हैं।

 3 यहां कपड़े के बनाए गए नरमुंड तथा निम्बू चढ़ाए जाते हैं।नवरात्रो मे यहाँ विशेष आयोजन होता है - प्रसाद के रूप में दशहरे के दिन नींबू बांटा जाता है। इन नौ दिनों में माता कालिका अपने भक्तों को अलग-अलग रूप में दर्शन देती हैं।

मंदिर की स्थापना के बारे कोई प्रमाण नहीं है  परन्तु इसे महाभारत कालीन माना  समय समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा - राजा विक्रमादित्य ने ईस्वी संवत 606 में करवाया था


कालिदास मां के उपासक रहे हैं। काली दास के करण - सिद्ध पीठ - होंठ गिरने से शक्ति पीठ कहाया
कालिदास उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के राजदरबारी कवि थे। इन्हें विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माना जाता है।कालिदास के संबंध में मान्यता है कि जब से वे इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे तभी से उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का निर्माण होने लगा। उन्होंने छोटी-बड़ी कुल लगभग चालीस रचनाएँ हैं रचना कर दी और उन्हें महाकवि का दर्जा मिल गया। 

महाकाव्य---कुमारसंभवम् उनके महाकाव्यों के नाम है। रघुवंशम् में सम्पूर्ण रघुवंश के राजाओं की गाथाएँ हैं, तो कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा और कार्तिकेय के जन्म की कहानी है।

रघुवंशम् में कालिदास ने रघुकुल के राजाओं का वर्णन किया है।

खण्डकाव्य

मेघदूतम् एक गीतिकाव्य है जिसमें यक्ष द्वारा मेघ से सन्देश ले जाने की प्रार्थना और उसे दूत बना कर अपनी प्रिय के पास भेजने का वर्णन है। मेघदूत के दो भाग हैं - पूर्वमेघ एवं उत्तरमेघ।

ऋतुसंहारम् में सभी ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का विस्तार से

 वर्णन किया गया है।

मंदिर के प्रवेश द्वार पर मां के वाहन सिंह की प्रतिमा बनी हुई है। - गर्भ गृह मे गेरुआ रंग के सिन्दूर से लेपित विशाल मूर्ति के दर्शन होंगे जो चांदी के मुकुट तथा चांदी के दांतो से सुसज्जित है गर्भ गृह मे लक्समी सरस्वती विराजमान है



'कालियादेह महलअब खंडहरों में बदल गया है

श्री मंगलनाथ मंदिर----मत्स्य पुराण के अनुसार, मंगलनाथ लाल ग्रह मंगल का जन्मस्थान है मान्यता है कि यहां पूजाअर्चना करने वाले हर जातक की कुंडली के दोषों का नाश हो जाता है. 


काल भैरव - अर्थात -काल के  आदि देव - काल यानि  समय- भैरव अर्थात भय का हरण करने वाला, भगवन शिव का रौद्र रूप - और आठ भैरवों में सबसे महत्वपूर्ण  - शिव के रुधिर से भैरव की उत्पति हुई - जो बाद मैं दो भागों मे बंट गया - काल भैरव तथा बटुक भैरव= जहां काल भैरव शिव का रौद्र रूप है बटुक भैरव बाल रूप  है  कालभैरव की पूजा भारत समेत श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत आदि स्थानों पर होती है. अलग-अलग स्थानों पर उन्हें अलग-अलग नामों से पूजा जाता है. महाराष्ट्र में खंडोबा .दक्षिण भारत में शाश्ता है. लेकिन हर जगह उन्हें काल के स्वामी रूप में ही जाना जाता है. भैरव को दंड पाणी भी कहा जाता है जिसका अर्थ है पापियों को दंड देने वाले. इसीलिए उनका अस्त्र डंडा और त्रिशूल है. उन्हें स्वासवा भी कहा जाता है अर्थात जिसका वाहन कुत्ता है. प्राचीन शास्त्रों की माने तो काल भैरव मंदिर को तंत्र पंथ से जोड़ा जाता है  जो एक गुप्त धार्मिक संप्रदाय है,

काल भैरव-  काशी , उज्जैन  -- तथा बटुक भैरव-दिल्ली नेहरू पार्क , नैनीताल के पास घोडा खाड़ - यहाँ इसे गोलू देवता भी कहते हैजयपुर जिले के चाकसू कस्बे मे भी प्रसिद बटुक भैरव मंदिर हे जो लगभग आठवी शताब्दी का बना हुआ हे माना जाता है कि भगवान शिव के तम गण हैं – भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि. विपत्ति, रोग और मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके सैनिक हैं और इन सभी गणों के अधिनायक है बाबा काल भैरव. 

मुख्य शहर से दूर ,क्षिप्रा नदी के किनारे ,भैरवगढ़ क्षेत्र में एक ऊंचे टीले पर  स्थित  6000 वर्ष पुराना यह मंदिर काले  पत्थर से राजा भद्रसेन द्वारा बनाया गया था। दिर के पुजारी के अनुसार इस मंदिर का वर्णन स्कंदपुराण के अवंति खंड में मिलता है। इस मंदिर में भगवान कालभैरव के वैष्णव स्वरूप का पूजन किया जाता है।

मंदिर के चारों ओर परकोटा (दीवार) बना हुआ है। मंदिर पर मराठा शैली का प्रभाव पुनर्निर्माण के समय पड़ा

 कालभैरव मंदिर के मुख्य द्वार से अंदर घुसते ही कुछ दूर चलकर बांई ओर पातालभैरवी का स्थान है। इसके चारों ओर दीवार है। इसके अंदर जाने का रास्ता बहुत ही संकरा है। करीब 10-12 सीढिय़ां नीचे उतरने के बाद तलघर आता है। तलघर की दीवार पर पाताल भैरवी की प्रतिमा अंकित है। ऐसी मान्यता है कि पुराने समय में योगीजन इस तलघर में बैठकर ध्यान करते थे।कालभैरव मंदिर से कुछ दूरी पर विक्रांत भैरव का मंदिर स्थित है। 


श्मशान और नदी का किनारा होने से यहां दूर-दूर से तांत्रिक तंत्र सिद्धियां प्राप्त करने आते हैं। इस मंदिर में भगवान कालभैरव की पगड़ी ग्वालियर के सिंधिया परिवार की ओर से आती है। यह प्रथा सैकड़ों सालों से चली आ रही  इस संबंध में मान्यता है कि करीब 400 साल पहले सिंधिया घराने के राजा महादजी सिंधिया शत्रु राजाओं से बुरी तरह पराजित हो गए थे। उस समय जब वे कालभैरव मंदिर में पहुंचे तो महादजी सिंधिया ने अपनी पगड़ी भगवान कालभैरव को अर्पित कर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए भगवान से प्रार्थना की।

इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां भगवान कालभैरव की प्रतिमा को शराब का भोग लगाया जाता है।आश्चर्य की बात यह है कि देखते ही देखते वह पात्र जिसमें मदिरा का भोग लगाया जाता है, खाली हो जाता है। पदम् श्री विष्णु श्री धर ने इस प्रतिमा के नीच खुदाई भी की थी परन्तु उन्हें शराब का एक कण भी नहीं मिला 




भैरव अष्टमी -101 ब्रांड की शराब, 111 प्रकार की नमकीन का लगा भोग




कालभैरव के इस मंदिर में दिन में दो बार आरती होती है। एक सुबह साढ़े आठ बजे आरती की जाती है, दूसरी आरती रात में साढ़े आठ बजे की जाती है।भैरव को उज्जैन नगर का सेनापति भी कहा जाता है


भूखी माता

कहा जाता है कि भूखी माता को प्रतिदिन एक युवक की बलि दी जाती थी। तब जवान लड़के को उज्जैन का राजा घोषित किया जाता था, उसके बाद भूखी माता उसे खा जाती थी। एक दु:खी मां ने इसके लिए विक्रमादित्य को अपनी फरियाद सुनाई। नरबलि वाली रात को विक्रमादित्य ने पूरे नगर को सुगंधित पकवानों और स्वादिष्ट छप्पन भोग मिठाइयों से सजाने का आदेश दिया। जगह-जगह छप्पन भोग सजा दिए गए। इन छप्पन भोगों के चलते भूखी माता की भूख पहले ही शांत हो गई। देवी ने खुश होकर वरदान मांगने के लिए कहा, तब विक्रमादित्य ने कहा कि मैं चाहता हूं कि आप किसी भी इंसान की बलि न लें और कृपा करके नदी के उस पार ही विराजमान रहें    मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा के बीच भूखी माता को गुलगुले का नैवेद्य अर्पित करने की परंपरा है गुर्जर गौड़ ब्राह्मण समाज के परिवार अन्य कई समाज भी भूखी माता के दरबार में पहुँचकर देवी का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।

बर्बादी के लिए वैसे तरीके अनेक हैं।  पर विवाह सबसे सर्वश्रेष्ठ नेक है।परन्तु बहुत से ऐसे लोग है जो विवाह होने के कारण  दुखी रहते है भारतीय जयोतिष शास्त्र अनुसार  मंगल दोष के कारण विवाह होने अड़चनें  में आती हैं, यदि विवाह हो भी जाता है तो  शादी टूट सकती है, जीवनसाथी से तालमेल का अभाव रहता है। ज्योतिष  शास्त्र अनुसार इसका निवारण भी किया जा सकता है तो सभी कुंवारे हो जाओ अलर्ट -आओ जानते है कहाँ किया जा सकता है इसका निवारण -थर्ड ऑय ट्रेवल व्लॉग आज आप की समस्या  समाधान हेतु करवाए गए ऐसे मंदिर के दर्शन जहाँ है  आपकी शादी की कुंजी
 उज्जैन नगरी को मंगल की जननी भी कहा जाता है  भूमिपुत्र मंगल की यहां पर शिवलिंग के रूप में पूजा की जाती है. ग्रहों ke  सेनापति मंगल  को समर्पित मंगल नाथ मंदिर उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे बना हुआ  हैं।
- मंगल यानि  MARS ---मंगल ग्रह के दो चंद्रमा है फोबोस (Phobos) और डीमोस (Diemos) फोबोस डीमोस से बड़ा है। फोबोस का ग्रीक भाषा में अर्थ होता हैभय इसलिये ग्रीक लोग मंगल कोभय का देवताभी कहते थे। भारतीय जयोतिष में मंगल ग्रह कोयुद्ध का देवतामाना जाता है। फोबोस उपग्रह कोशुक्र का बेटाभी कहते थे। पृथ्वी से देखने पर यह लाल दिखाई देता है। इसलिए इसे लाल गृह भी कहते हैं। धार्मिक manyata  अनुसार  मंगल देवता को लाल रंग प्रिय है, so मंदिर का मुख्य भाग भी लाल रंग का है। चूंकि मंगल शिव पुत्र है इसलिए मंदिर  jhane par  के पास चंद्रमा और सूर्य केसरिया रंग में हैं। यह मंदिर 2 मंजिला है और दूसरी मंजिल में शिव जी का मंदिर देखने के लिए मिलता है। प्रथम तल पर पूजा विधि संपन्न की जाती है

पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार अंधकासुर नाम के दैत्य ने कठिन तपस्या के बल पर भगवान शिव से वरदान प्राप्त किया कि यदि उसके बूंद पृथ्वी पर पड़ी तो उससे सैकड़ों दैत्य जन्म लेंगे. इसके बाद वह इसका दुरुपयोग करते हुए पूरी पृथ्वी पर उत्पात मचाने लगा. मान्यता है कि देवताओं ने जब भगवान शिव से अपनी व्यथा बताई तो महादेव ने अंधकासुर से युद्ध लड़ना शुरु किया. युद्ध के दौरान जब महादेव के पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी तो उसकी गर्मी से धरती फट गई और मंगल देवता का प्राकट्य हुआ और उन्होंने अंधकासुर के शरीर से निकलने वाले रक्त को अपने भीतर सोख लिया. इसके बाद भगवान शिव ने अधकासुर का वध कर दिया.

43/84अंगारेश्वर। यह स्थान मंगलनाथ मंदिर के पीछे मां क्षिप्रा के किनारे स्थित है। मान्यता है कि दोनों ही मंदिरों में भात पूजा कराने से कुंडली के मंगल दोष का निवारण होता है।

भात पूजा : भात अर्थात चावल। चावल से शिवलिंगरूपी मंगलदेव की पूजा की जाती है। जो मांगलिक हैं उन्हें विवाह पूर्व भात पूजा अवश्य करना चाहिए।

वैशाख में भात पूजन का महत्व ---मान्यता है कि वैशाख की गर्मी में भगवान को राहत देने के लिए भात पूजा की जाती है। वैसे भी भगवान मंगल देव और अंगारेश्वर की प्रकृति गर्म होने से ही भात पूजा का विधान है।


महाराष्ट्र में जलगांव के पास अमलनेर में स्थित मंगल देव ग्रह मंदिर में विशेष पूजा और अभिषेक किया जाता है।


श्री खाटू श्याम जी

  निशान यात्रा में झूमते   भक् ‍ त - भगवान खाटू श्याम की जयकार करते हुए तंग गलियों से गुजरते हुए आनंद मे खो जाते है   और ...