Wednesday 7 April 2021

नाथ संप्रदाय

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नाथ संप्रदाय

भारत में नाथ योगियों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है। नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। कुछ लोग मानते हैं कि नाग शब्द ही बिगड़कर नाथ हो गया। नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। नौ नाथों की परंपरा से 84 नाथ हुए। नौ नाथों के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं।

भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और नौ नाथ से 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई। नाथ संप्रदाय को गुरु मत्स्येंद्रनाथ और उनके शिष्य गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) ने पहली दफे व्यवस्था दी। इतिहासवेत्ता मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं तथा गोरक्षनाथ दसवीं शताब्दी के पूर्व उत्पन्न कहे जाते हैं।

 

1.  मत्स्येन्द्र नाथ : नाथ संप्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम हठयोग के परम गुरु आचार्य मत्स्येंद्र नाथ का है, जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुए। मत्स्येन्द्र के गुरु दत्तात्रेय थे। इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है।

2.  गोरखनाथ -गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ- नाथ साहित्य के आरंभकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ से पहले अनेक संप्रदाय थे, जिनका नाथ संप्रदाय में विलय हो गया। गोरखनाथ ने असम से पेशावर, कश्मीर से नेपाल और महाराष्ट्र तक की यात्राएं कीं। गोरखनाथ ने काबुल, गांधार, सिंध, बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों मक्का-मदीना तक नाथ परंपरा को विस्तार दिया। उनकी बनायी गयीं 12 शाखाएं आज भी जीवित हैं जिनमें उडीसा में सत्यनाथ, कच्छ का धर्मनाथ, गंगासागर का कपिलानी, गोरखपुर का रामनाथ, अंबाला का ध्वजनाथ, झेलम का लक्ष्मणनाथ, पुष्कर का बैराग, जोधपुर का माननाथी, गुरूदासपुर का गंगानाथ, बोहर का पागलपंथ समुदाय के अलावा दिनाजपुर के आईपंथ की कमान विमलादेवी सम्भाले हैं, जबकि रावलपिंडी के रावल या नागनाथ पंथ में ज्यादातर मुसलमान योगी ही हैं।उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर  आज भी दर्शनीय है।

 बारह पंथ

 उडीसा में---सत्यनाथ पंथ – इनकी संख्या 31 बतलायी गयी है । इसके मूल प्रवर्तक सत्यनाथ (भगवान् ब्रह्माजी) थे । इसीलिये सत्यनाथी पंथ के अनुयाययियों को “ब्रह्मा के योगी” भी कहते हैं । इस पंथ का प्रधान पीठ उड़ीसा प्रदेश का पाताल भुवनेश्वर स्थान है ।

कच्छ में--धर्मनाथ पंथ – इनकी संख्या २५ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक धर्मराज युधिष्ठिर माने जाते हैं । धर्मनाथ पंथ का मुख्य पीठ नेपाल राष्ट्र का दुल्लुदेलक स्थान है । भारत में इसका पीठ कच्छ प्रदेश धिनोधर स्थान पर हैं ।

गोरखपुर में  -- राम पंथ – इनकी संख्या 61 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भगवान् श्रीरामचन्द्र माने गये हैं । इनका प्रधान पीठ उत्तर-प्रदेश का गोरखपुर स्थान है ।

झेलम में-- नाटेश्वरी पंथ अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ – इनकी संख्या 43  है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक लक्ष्मणजी माने जाते हैं । इस पंथ का मुख्य पीठ पंजाब प्रांत का गोरखटिल्ला (झेलम) स्थान है । इस पंथ का सम्बन्ध दरियानाथ व तुलनाथ पंथ से भी बताया जाता है ।

कंथड़ पंथ – इनकी संख्या 10  है । कंथड़ पंथ के मूल प्रवर्तक गणेशजी कहे गये हैं । इसका प्रधान पीठ कच्छ प्रदेश का मानफरा स्थान है ।

गंगासागर में---कपिलानी पंथ – इनकी संख्या 26  है । इस पंथ को गढ़वाल के राजा अजयपाल ने चलाया । इस पंथ के प्रधान प्रवर्तक कपिल मुनिजी बताये गये हैं । कपिलानी पंथ का प्रधान पीठ बंगाल प्रदेश का गंगासागर स्थान है । कलकत्ते (कोलकाता) के पास दमदम गोरखवंशी भी इनका एक मुख्य पीठ है ।

पुष्कर में---वैराग्य पंथ – इनकी संख्या 124 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भर्तृहरिजी हैं । वैराग्य पंथ का प्रधान पीठ राजस्थान प्रदेश के नागौर में राताढुंढा स्थान है ।इस पंथ का सम्बन्ध भोतंगनाथी पंथ से बताया जाता है ।

जोधपुर में---माननाथ पंथ – इनकी संख्या 10 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक राजा गोपीचन्द्रजी माने गये हैं । इस समय माननाथ पंथ का पीठ राजस्थान प्रदेश का जोधपुर महा-मन्दिर नामक स्थान बताया गया है ।

दिनाजपुर में  ---आई पंथ – इनकी संख्या १० है । इस पंथ की मूल प्रवर्तिका गुरु गोरखनाथ की शिष्या भगवती विमला देवी हैं । आई पंथ का मुख्य पीठ बंगाल प्रदेश के दिनाजपुर जिले में जोगी गुफा या गोरखकुई नामक स्थान हैं । इनका एक पीठ हरिद्वार में भी बताया जाता है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ा चौली से भी समझा जाता है ।

बोहर में---पागल पंथ – इनकी संख्या 4 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री चौरंगीनाथ थे । जो पूरन भगत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब-हरियाणा का अबोहर स्थान है ।

अंबाला में-----ध्वजनाथ पंथ – इनकी संख्या 3 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक हनुमानजी माने जाते हैं । वर्तमान में इसका मुख्य पीठ सम्भवतः अम्बाला में है ।

 गुरूदासपुर में-----गंगानाथ पंथ – इनकी संख्या 6 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री भीष्म पितामह माने जाते हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब में गुरुदासपुर जिले का जखबार स्थान है ।

कालान्तर में नाथ सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े –  रावल (संख्या-७१),  पंक (पंख),  वन, कंठर पंथी, गोपाल पंथ तथा  हेठ नाथी ।

इस प्रकार कुल बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं । बाद में अनेक पंथ जुड़ते गये, ये सभी  उपशाखायें अथवा उप-पंथ है । कुछ के नाम इस प्रकार हैं – अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी, कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी, निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी, पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि

 नेपाल के परम सिद्ध योगी : गोरखनाथ

गुरु गोरखनाथजी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल का गोरखा जिले का नाम भी भी गुरु गोरखनाथ के नाम पर ही पड़ा। नेपाल की राजमुद्रा पर श्रीगोरक्षनाथ नाम और राजमुकुटों में उनकी चरणपादुका का चिह्न अंकित है।

गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों

गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४० बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल १४ रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है।

1. सबदी  2. पद  3.शिष्यादर्शन  4. प्राण सांकली  5. नरवै बोध  6. आत्मबोध 7. अभय मात्रा जोग  8. पंद्रह तिथि  9. सप्तवार  10. मंछिद्र गोरख बोध  11. रोमावली12. ग्यान तिलक  13. ग्यान चैंतीसा  14. पंचमात्रा   15. गोरखगणेश गोष्ठ 16.गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)  17.महादेव गोरखगुष्टिउ 18. शिष्ट पुराण  19. दया बोध 20.जाति भौंरावली (छंद गोरख)  21. नवग्रह   22. नवरात्र  23 अष्टपारछ्या  24. रह रास  25.ग्यान माला  26.आत्मबोध (2)   27. व्रत   28. निरंजन पुराण   29. गोरख वचन 30. इंद्र देवता   31.मूलगर्भावली  32. खाणीवाणी  33.गोरखसत   34. अष्टमुद्रा  35. चौबीस सिध  36 षडक्षर  37. पंच अग्नि  38 अष्ट चक्र   39 अूक 40. काफिर बोध

 3 गहिनीनाथ : गहिनीनाथ के ‍गुरु गोरखनाथ थे। मान्यता है कि एक दिन गुरु गोरखनाथ अपने गुरु मछिन्दर नाथ के साथ तालाब के किनारे एक एकांत जगह प्रवास कर रहे थे, जहां पास ही में एक गांव था। मछिंदरनाथ ने कहा कि मैं तनिक भिक्षा लेकर आता हूं तब तक तुम संजीवनी विद्या सिद्धि का मंत्र जपो। संजीवनी विद्या को सिद्ध करने को चार बातें चाहिए श्रद्धा, तत्परता, ब्रह्मचर्य और संयम। ऐसा कहकर मछिंदरनाथ तो चले गए और गोरखनाथ जप करने लगे।वे जप और ध्यान कर ही रहे थे वहीं तालाब के किनारे बच्चे खेलने आ गए। तालाब की गीली-गीली मिट्टी को लेकर वे बैलगाड़ी बनाने लगे। बैलगाड़ी बनाने तक वो सफल हो गए, लेकिन बैलगाड़ी चलाने वाला मनुष्य का पुतला वे नहीं बना पा रहे थे। किसी लड़के ने सोचा कि ये जो आंख बंद किए बाबा हैं इन्हीं से कहें- बाबा-बाबा हमको गाड़ी वाला बनाके दीजिए। गुरु गोरखनाथ ने आंखें खोलीं और कहा कि अभी हमारा ध्यान भंग न करो फिर कभी देखेंगे। लेकिन वे बच्चे नहीं माने और फिर कहने लगे। बच्चों के आग्रह के चलते गोरखनाथ ने कहा- लाओ बेटे बना देता हूं। उन्होंने जप संजीवनी जप करते हुए ही मिट्टी उठाई और पुतला बनाने लगे। संजीवनी मंत्र प्रभाव से वो पुतला सजीव होने लगा उसमें जान आ गई। जब पूरा हुआ तो वो पुतला बोला प्रणाम। गुरु गोरखनाथजी चकित रह गए। बच्चे घबराए कि ये पुतला कैसे जी उठा? बच्चे तो चिल्लाते हुए भागे। जाकर उन बच्चो ने गांव वालों से कहा और गांव वाले भी उस घटना को देखने जुट गए। गांव वालों ने गोरखनाथ को प्रणाम किया। इतने में गुरु मछिंद्रनाथ भिक्षा लेकर आ गए। दोनों नाथ बच्चे को लेकर जाने लगे। इतने में गांव के ब्राह्मण मधुमय और ब्राह्मणी गंगा जिनको संतान नहीं थी गांव वालों ने कहा कि आपकी कृपा से इन्हें संतान मिल सकती है। दोनों ने उक्त बालक को गोद लेना स्वीकार कर लिया।यही बालक गहिनीनाथ योगी के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ। यह कथा है कनक गांव की जहां आज भी इस कथा को याद किया जाता है। गहिनीनाथ की समाधि महाराष्ट्र के चिंचोली गांव में है, ‍जो तहसील पटोदा और जिला बीड़ के अंतर्गत आता है। मुसलमान इसे गैबीपीर कहते हैं।

 4 जालंधर (जालिंदरनाथ) नाथ : इनके गुरु दत्तात्रेय थे। एक समय की बात है हस्तिनापुर में ब्रिहद्रव नाम के राजा सोमयज्ञ कर रहे थे। अंतरिक्षनारायण ने यज्ञ के भीतर प्रवेश किया। यज्ञ की समाप्ति के बाद एक तेजस्वी बालक की प्राप्ति हुई। यही बालक जालंधर कहलाया। दस्तावेजों के मुताबिक वे विक्रम संवत 1451 में राजस्थान में पधारे थे।

5 कृष्णपाद : इनके गुरु जालंदरनाथ थे। कृष्णपाद को कनीफ नाथ भी कहा जाता है।और इनका नाम कण्हपा, कान्हूपा, कानपा आदि प्रसिद्ध है। कोई तो उन्हें कर्णाटक का मानता है और कोई उड़ीसा का। महाराष्ट्र की सह्याद्री पर्वत श्रृंखला में ऊंचे किले पर मढ़ी नामक गांव है । इस किले पर श्री कनीफ नाथ महाराज ने 1710 में फाल्गुन मास की वैद्य पंचमी पर समाधि ली थी

 6 भर्तृहरि नाथ : भर्तृहरि राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। राजा गंधर्वसेन ने राजपाट भर्तृहरि को सौंप रानी द्वारा आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य जीवन की राह दिखा दी। वे वैरागी हो गए।  मध्यप्रदेश के उज्जैन में आज भी भर्तृहरि की गुफा है जहां वे तपस्या किया करते थे।

 7 रेवणनाथ : महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में करमाला तहसील के वीट गांव में इनकी समाधि है।

 8 नागनाथ : ब्रह्मा का वीर्य एक नागिन के गर्भ में चला गया था जिससे बाद में नागनाथ की उत्पत्ति हुई।

 9 चर्पट नाथ :

 इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।

 

नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते है।

 यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है

 सत्यनाथ ,धर्मनाथ ,दरियानाथ, आई पन्थी, रास के,वैराग्य के,कपिलानी,गंगानाथी,मन्नाथी,रावल के, पाव पन्थी, पागल

इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि।

नवनाथ नाथ सम्प्रदाय के सबसे आदि में नौ मूल नाथ हुए हैं । वैसे नवनाथों के सम्बन्ध में काफी मतभेद है,

 आदिनाथ – ॐ-कार शिव, ज्योति-रुप

 उदयनाथ – पार्वती, पृथ्वी रुप

  सत्यनाथ – ब्रह्मा, जल रुप

 संतोषनाथ – विष्णु, तेज रुप

 अचलनाथ (अचम्भेनाथ) – शेषनाग, पृथ्वी भार-धारी

कंथडीनाथ – गणपति, आकाश रुप

 चौरंगीनाथ – चन्द्रमा, वनस्पति रुप

मत्स्येन्द्रनाथ – माया रुप, करुणामय

 गोरक्षनाथ – अयोनिशंकर त्रिनेत्र, अलक्ष्य रुप

चौरासी सिद्ध

 जोधपुर, चीन इत्यादि के चौरासी सिद्धों में भिन्नता है । अस्तु, यहाँ यौगिक साहित्य में प्रसिद्ध नवनाथ के अतिरिक्त ८४ सिद्ध नाथ इस प्रकार हैं –

 १॰ सिद्ध चर्पतनाथ,  २॰ कपिलनाथ,  ३॰ गंगानाथ, ४॰ विचारनाथ, ५॰जालंधरनाथ,

६॰ श्रंगारिपाद, ७॰ लोहिपाद, ८॰ पुण्यपाद, ९॰ कनकाई, १०॰ तुषकाई, ११॰ कृष्णपाद,

१२॰ गोविन्द नाथ, १३॰ बालगुंदाई, १४॰ वीरवंकनाथ, १५॰ सारंगनाथ, १६॰ बुद्धनाथ,

१७॰ विभाण्डनाथ, १८॰ वनखंडिनाथ, १९॰ मण्डपनाथ, २०॰ भग्नभांडनाथ, २१॰धूर्मनाथ २२॰ गिरिवरनाथ, २३॰ सरस्वतीनाथ, २४॰ प्रभुनाथ, २५॰ पिप्पलनाथ, २६॰ रत्ननाथ,

२७॰ संसारनाथ, २८॰ भगवन्त नाथ, २९॰ उपन्तनाथ, ३०॰ चन्दननाथ, ३१॰ तारानाथ,

३२॰ खार्पूनाथ, ३३॰ खोचरनाथ, ३४॰ छायानाथ, ३५॰ शरभनाथ, ३६॰ नागार्जुननाथ,

३७॰ सिद्ध गोरिया, ३८॰ मनोमहेशनाथ, ३९॰श्रवणनाथ, ४०॰बालकनाथ,४१॰शुद्धनाथ,

४२॰ कायानाथ ४३॰ भावनाथ, ४४॰ पाणिनाथ, ४५॰ वीरनाथ, ४६॰ सवाइनाथ,

४७॰ तुक नाथ, ४८॰ ब्रह्मनाथ, ४९॰ शील नाथ, ५०॰ शिव नाथ, ५१॰ ज्वालानाथ, ५२॰ नागनाथ, ५३॰ गम्भीरनाथ, ५४॰ सुन्दरनाथ, ५५॰ अमृतनाथ, ५६॰ चिड़ियानाथ,

५७॰ गेलारावल, ५८॰ जोगरावल, ५९॰ जगमरावल, ६०॰ पूर्णमल्लनाथ,६१॰ विमलनाथ,

६२॰ मल्लिकानाथ, ६३॰ मल्लिनाथ ।६४॰ रामनाथ, ६५॰ आम्रनाथ, ६६॰ गहिनीनाथ,

६७॰ ज्ञाननाथ, ६८॰ मुक्तानाथ, ६९॰ विरुपाक्षनाथ, ७०॰ रेवणनाथ, ७१॰ अडबंगनाथ,

७२॰ धीरजनाथ, ७३॰ घोड़ीचोली, ७४॰ पृथ्वीनाथ, ७५॰ हंसनाथ, ७६॰ गैबीनाथ,

७७॰ मंजुनाथ, ७८॰ सनकनाथ, ७९॰सनन्दननाथ, ८०॰ सनातननाथ,८१॰सनत्कुमारनाथ,

८२॰ नारदनाथ, ८३॰ नचिकेता, ८४॰ कूर्मनाथ ।

विभिन्न मान्यताएँ

1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन संबंधित विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूओं आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ के होने के बारे में एकमत हैं। गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया।

2 . नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।

 3. श्री गोरक्षनाथ जी को अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती पर प्रकट हुए। सतयुग में वह लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार भुज में और कलियुग में पुनः गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।

 4. एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है।

 5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ ko नेपाल के शासकों का कुल गुरू तथा बौद्ध भिक्षु  भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपाणि का अवतार लिया। मान्यता अनुसार उन्होंने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।

 6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम  से बुलाया गया था।

 7. एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।

 8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उनकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।

 9. एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को काम और सेक्स का लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

 10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। गोरक्षनाथ जी की एक गोष्ठी में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है।

 11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पूरनमल भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पूरनमल पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पूरनमल तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पूरनमल वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।

 12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से राजस्थान पंजाब में गोपीचंद भरथरी , रानी पिंगला और राजा भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथ के परमप्रिय शिष्य बन गये थे।

 गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रह है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की साथ आए  धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं। इन्ही गोगाजी को आज जावरवीर गोगा कहते है और राजस्थान से लेकर विहार  और पश्चिम बंगाल तक इसके श्रद्धालु रहते हैं ।

इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं-प्रारम्भिक दस नाथ………

 

आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ।

 

चौरासी और नौ नाथ परम्परा0

आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चैरासी मानी गई है।

नौनाथ गुरु  1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ। इसके अलावा ये भी हैं 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ। ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चैरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।

Tuesday 6 April 2021

पठानकोट-pathankot tourist places

 


पठानकोट के बारे में

पठानकोट एक प्राचीन शहर है, जो पहले गुरदासपुर जिले का एक तहसील था,

पठानकोट अपने मंदिरों, सुरम्य परिदृश्यों, प्रवासी पक्षियों के लिए लैंडिंग स्थल के हैसियत से प्रसिद्ध हैं। आधिकारिक तौर पर 27 जुलाई 2011 को पंजाब राज्य के एक जिले के रूप में घोषित किया गया था। पठानकोट पंजाब के प्रमुख शहरों में से एक है। दो नदियों द्वारा रावी और चक्की जो कि इसकी बहुत अधिक सुंदरता के लिए जिम्मेदार हैं



पठानकोट हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर के हिल स्टेशनों के लिए प्रवेश-मार्ग के रूप में कार्य करता है ।

शिवालिक पहाड़ियों की मनमोहक पृष्ठभूमि में स्थित पठानकोट -- शॉल बुनाई उद्योग के लिए जाना जाता था और अब पत्थर क्रेशर उद्योग और सेना पर निर्भर करता है।

प्राचीन साहित्य में शहर को नूरपुर राज्य की एक औपचारिक राजधानी ऑडुम्बरा कहा जाता है। इसका पुराना नाम पैथान था जो बाद में पठानकोट में बदल गया

 हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा घाटी के लिए एक खिलौना रेलगाड़ी प्रत्येक आगंतुक के लिए एक अनुभव होना चाहिए। कई पर्यटक आकर्षण प्रदान करते हुए, पठानकोट में घूमने के लिए कई जगहें हैं जो आनंदित छुट्टी अनुभव के लिए आदर्श हैं।

पठानकोट देश के बाकी हिस्सों के साथ रेल, सड़क और हवाई सेवाओं से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।

पठानकोट रेलवे स्टेशन --- पठानकोट में दो रेलवे स्टेशन हैं। एक पठानकोट शहर है और दूसरा पठानकोट कैंट जिसे पहले चक्की बैंक स्टेशन के नाम से जाना जाता था। अब सभी प्रमुख ट्रेनें पठानकोट कैंट में रुकती हैं

महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस टर्मिनल हिमाचल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और जम्मू और कश्मीर के प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है

जब आप इस दिव्य शहर का दौरा कर रहे हों, तो इन स्थानों को अपने यात्रा कार्यक्रम में देखने के लिए जोड़ें और यहाँ अपना अधिकांश प्रवास करें। ‘''




विरासत की झलक ------- पठानकोट में कई ऐतिहासिक स्थान हैं

वास्तुकला का बेजोड  नमूना --- गोपाल मंदिर -डमटाल –

 


 कांगड़ा के डमटाल में राम गोपाल मंदिर को संवत 1550 में गुरदासपुर (पंजाब) के पिंडोरी धाम के संत भगवान दास द्वारा बनवाया गया था। श्री राम गोपाल मंदिर को शुरू में धर्मताल कहा जाता था।

नूरपुर के राजा ने द्रष्टा का दौरा किया और एक बेटे के साथ आशीर्वाद पाने के लिए विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की। द्रष्टा ने राजा को आशीर्वाद दिया कि यह वंश सात पीढ़ियों तक केवल एक ही पुत्र रहेगा।

बाद में, राजा को एक पुत्र प्राप्त हुआ। अतिप्रिय और कृतज्ञ राजा ने डमटाल और उसके आस-पास की भूमि पर स्थित अपने किले को द्रष्टा को दान कर दिया। द्रष्टा ने भगवान राम की मूर्ति की स्थापना की और तब से यह स्थान डमटाल धाम के नाम से प्रसिद्ध है।


मंदिर के दाईं ओर दुर्गा माता का मंदिर है। इसके साथ ही मुख्य देवड़ी, गोपाल ड्योढ़ी, आध्यात्मिक देवदार, प्राचीन वट वृक्ष, बाईं ओर गद्दी मंदिर, शीर्ष पर गुरु निवास, दाईं ओर अन्य भंडारगृह, महात्माओं की समाधि हैं। उत्तर की ओर श्री राम गोपाल का मंदिर है। मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने तुलसी चौरा, गोशाला के पीछे महावीर की एक विशाल मूर्ति हाथ जोड़े हुए है।




 वर्तमान में, राज्य सरकार और कांगड़ा के उपायुक्त द्वारा मंदिर प्रबंधन चलाया जा रहा है



वास्तुकला का चमत्कार --- शाहपुरकंडी किला ---- खंडहर


ध्वस्त किलों की दीवारें सबसे खूबसूरत कहानियां सुनाती हैं।

आपको अपने गौरवशाली अतीत में ले जाने के लिए पठानकोट का अपना किला है शाहपुरकंडी किला 16 वीं शताब्दी में पठानिया शासकों के राजा भाओ सिंह द्वारा बनाया गया था और इसका नाम शाहजहाँ के नाम पर रखा गया था, जो रावी नदी के तट पर स्थित है और प्राकृतिक सुंदरता के बीच खड़ा है। शाहपुर-कंडी किला आज पूरी तरह से खंडहर हो गया है



लेकिन आप किले में स्तिथ  विरासत मंदिर की यात्रा का आनंद ले सकते हैं। किले का एक हिस्सा अब विश्राम गृह में परिवर्तित हो गया है। पुराना मंदिर पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। यहां आप अतीत की झलक देख सकते हैं





 स्थान: शाहपुर कंडी, पठानकोट शहर से सिर्फ 12 कि.मी


नूरपुर का किला - शानदार वास्तुकला का साक्षी


पूर्व में धमेरी किले के नाम से जाना जाने वाला यह किला 10वीं शताब्दी का है। नूरपुर किले को अंग्रेजों द्वारा नष्ट कर दिया गया था और फिर 1905 में एक भूकंप द्वारा इसे फिर से ध्वस्त कर दिया गया था।



यह किला आंतरिक गर्भगृह में स्थित अपने प्राचीन कृष्ण मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जिसे 16वीं शताब्दी में बनाया गया था

कहा जाता है कि यह एकमात्र स्थानों में से एक है। जहां भगवान कृष्ण और मीरा बाई की दोनों मूर्तियों की एक साथ पूजा की जाती है।



                          स्थान: नूरपुर, पठानकोट समय: सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे तक








बाथु की लड़ी -

भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में ठाकुरद्वारा बाथू या बाथू की लाडी के नाम से जाना जाने वाला 1200 साल पुराने मंदिरों का समूह है,

1970 की शुरुआत में पोंग बांध द्वारा बनाए गए महाराणा प्रताप सागर जलाशय में साल में लगभग आठ महीने तक डूबा रहता है। माना जाता है कि मंदिर का निर्माण हिंदू शाही वंश द्वारा 8 ईस्वी में किया गया था। परिसर में भगवान शिव और देवी पार्वती को समर्पित मुख्य मंदिर और 15 अन्य मंदिर हैं।

आम मान्यता के अनुसार, पांडवों (महाकाव्य महाभारत के पात्रों) ने यहीं से अपनी 'स्वर्ग की सीढ़ी' बनाने की कोशिश की थी, जिसे बनाने में वे सफल नहीं हो सके।

यह एक मोहक दृश्य है, मंदिर को देखकर जो ज्यादातर पानी में ढंका हुआ है और केवल कुछ ऊंचे खंभे ही बाहर निकलने की कोशिश करते देखे जा सकते हैं। नाव के माध्यम से इस अद्भुत आश्चर्य की यात्रा आपके मन पर एक आध्यात्मिक छाप छोड़ देगी

छोटा घल्लूघारा काहनूवान छंब शहीदी स्मारक

 

यह स्मारक गुरदासपुर के काहनूवान यह स्मारक में है- 10 एकड़ के स्मारक का निर्माण 1746 में हुए सिखों के पहले नरसंहार के दौरान मारे गए लोगों की याद में किया गया था। 11,000 से अधिक सिखों को मुगलों के शासनकाल में लखपत राय के नेतृत्व में काहनुवान छंब पर मार दिया गया था। इस नरसंहार को छोटा घल्लूघारा--"छोटा नरसंहार"- कहते है

छोटा घल्लूघारा वड्डा घल्लूघारा से अलग है, जो 1762 का बड़ा नरसंहार है

 

बटाला- गुरुद्वारा श्री कंध साहिब लोगों की आस्था का केंद्र है स गुरुद्वारे का इतिहास गुरु नानक देव जी की शादी से जुड़ा हुआ है। इतिहास बताता है कि यहां गुरु जी के ससुराल वालों मूल राज खत्री के परिवार ने विवाह के समय बारात को ठहराया था और यह घर कच्चा था जिसकी एक दीवार आज भी शीशे के फ्रेम जैसे थी वैसे ही खड़ी है। ग्रंथों के अनुसार वर्ष 1405 में जब गुरु जी अपनी शादी के मौके पर बटाला आए तो बारात का ठहराव एक घर में करवाया गया। जहां अब गुरुद्वारा कंध साहिब है तो नानक देव जी एक कच्ची मिट्टी की दीवार के साथ बैठे थे तो वधू पक्ष की एक बुजुर्ग महिला ने सोचा कि लड़कियां शरारती हैं। कहीं ऐसा न हो लड़कियां शरारत करके कच्ची दीवार को गिरा दें और दूल्हे को चोट आ जाए यां दूल्हा और दूल्हे का परिवार बुरा मान जाए। इसी बात को लेकर बुर्जुग माता ने गुरु जी से कहा कि बेटा थोड़ा सा दूसरी तरफ बैठ जाए नहीं ते कुड़ियां शरारत करते-करते आप पर दीवार गिरा देंगी। तो उसी समय गुरु जी ने मुस्कराकर कहा था माता यह दीवार युगो-युग नहीं गिरेगी। पांच सौ वर्ष बीत जाने के बावजूद मिट्टी की वह कच्ची दीवार आज तक गरुद्वारा श्री कंध साहिब में मौजूद है, जिसे दीवार को शीशे के केस में सुरक्षित कर दिया गया है।

 

मकबरा शमशेर खानहजीरा पार्कबटाला-- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग चंडीगढ़ के अनुसार इस तालाब का निर्माण मुगल सम्राट अकबर ने सन 1590 में करवाया था। दरअसल मानिकपुर के फौजदार शमशेर खान जो अकबर के रिश्ते में भाई थे, अपने फौजी दस्ते के साथ बटाला से गुजर रहे थे कि उनकी मौत हो गई। अकबर ने शमशेर खान को यहीं सपुर्दे खाक किया और उनकी कब्र पर एक भव्य मकबरा बनवा दिया जिसे लोग हजीरा के तौर पर जानते है। मकबरे के पास ही करीब 12 एकड़ का तालाब खुदवा दिया। महाराजा रंजीत सिंह के बेटे शेर सिंह ने बटाला पर 1780 से 1890 तक शासन किया था। शेर सिंह ने तालाब के निकट अपना महल बनवाया और तालाब में बारादरी का निर्माण करवाया। तालाब के बीचों बीच बनी 120 वर्ग फूट की इस इमारत के चारों तरफ तीन बड़ी-बड़ी खिड़किया है। कु ल 12 खिड़किया के कारण इसे बारादरी कहा जाता है।

 

बाबा नाम देव मंदिर घुमाण ---यह गुरुद्वारा ग्राम घुमान में- श्री हरगोबिंदपुर से 10 किलोमीटर, - बटाला से 26 किलोमीटर(मेहता श्री हरगोबिंदपुर मार्ग) की दूरी पर स्थित है। संत नामदेव का जन्म 1270 में पिता दामाशेटी और माता गोनाबाई के ग्राम नरस-वामानी (महाराष्ट्र के सतारा जिले में) में हुआ था। उनके माता-पिता विठ्ठल के भक्त थे। पूरा परिवार पंढरपुर चला गया जहाँ विठ्ठल (भगवान विष्णु) का मंदिर स्थित था। संत नामदेव भी भक्त बन गए। संत नामदेव की शादी 11 साल की उम्र में होने से पहले हुई थी और उनके 4 बेटे और एक बेटी थी। वे ज्ञानदेव के प्रभाव में आए और पंढरपुर की विठ्ठल की पूजा में अपना समय व्यतीत करने लगे। संत नामदेव गाँव घुमान में आए, जहाँ गुरुद्वारा दरबार साहिब स्थित है और यहाँ 17 वर्षों से अधिक समय से निवास किया जाता है। यहाँ उन्होंने तप किया -कुछ समय बाद नामदेव पंढरपुर लौट आए जहाँ 80 वर्ष की आयु में उन्होंने समाधि ली। उन की वाणी गुरू ग्रंथ साहिब में भी दर्ज है।

 

कादियां ---श्वेत मीनार - कादियां में अक्सा मस्जिद के पास एक पत्थर की मीनार है। इसका निर्माण अहमदिया आंदोलन के संस्थापक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के निर्देशन में किया गया था,

105 फीट -मीनार के तीन मंज़िल हैं, 92 steps , इसका निर्माण 1916 में पूरा हुआ था और तब से यह अहमदिया इस्लाम में एक प्रतीक और विशिष्ट चिह्न बन गया है।

 

अक्सा मस्जिद का निर्माण 1876 में अहमदिया आंदोलन के संस्थापक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के पिता मिर्ज़ा ग़ुलाम मुर्तज़ा ने किया था। अहमदिया प्रशासन द्वारा मस्जिद को 20 वीं शताब्दी में पुनर्निर्मित और विस्तारित किया गया था आज इसमें 15,000 लोगों के बैठने की क्षमता है

 

गुरु की मसीत  हरगोबिंदपुर ----गुरु की मसीत  या गुरु की मस्जिद ब्यास नदी के तट पर श्री हरगोबिंदपुर शहर में स्थित एक मस्जिद है जिसका निर्माण छठे सिख गुरु गुरु हरगोबिंद जी के अनुरोध पर किया गया था। मेहराबों पर लिखी आयतों की लकीरें मद्धम हो गई हैं, टाइल्स पर क़लमकारी से उकेरे गए बेल-बूटों के रंग जगह-जगह से उड़ गए हैं । पेड़ों के बीच से दिखते गुंबद इसके मस्जिद होने की गवाही साफ-साफ देते हैं. इसे यूनेस्को द्वारा एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में भी मान्यता प्राप्त है

'गुरु की मस्जिद' जिसकी रखवाली करते हैं निहंग सिख --- गुरु की मसीत   वो मस्जिद है जिसका बंटवारे के वक़्त फैली वहशत के बावजूद बाल भी बांका न हुआ और जिसकी हिफ़ाज़त अपनी बहादुरी के लिए जाने जानेवाले निहंग सिख आधी सदी से ज़्यादा से कर रहे हैं,

 

-गुरुद्वारा दमाद साहिब -- हरगोबिंदपुर -इस शहर को 1587 में पांचवें सिख गुरु, श्री गुरु अर्जुन देव जी द्वारा स्थापित किया गया था और उनके बेटे के नाम पर इसका नाम श्री हरगोबिंदपुर रखा गया था। गुरु अर्जुन देव जी की शहादत के बाद यह शहर खंडहर हो गया। छठे सिख गुरु, श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने 1629 में करतारपुर से आते हुए शहर का दौरा किया और शहर का पुनर्वास किया। कस्बे के एक अमीर खत्री भगवान दास ने ईर्ष्या महसूस की और गुरु जी को क्षेत्र खाली करने की चुनौती दी। एक मामूली झड़प हुई और भगवान दास मारे गए। भगवान दास के पुत्र रतन चंद ने चंदू के बेटे करम चंद के साथ जालंधर के फौजदार से मदद मांगी। फौजदार ने मुगल सैनिकों को श्री हरगोबिंदपुर भेजा। मुगलों और सिख सेना के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ था जिसमें रतन चंद और करम चंद दोनों मारे गए थे। कई सिखों ने शहादत जीती। उन सिख शहीदों की याद में गुरुद्वारा दमदमा साहिब का निर्माण किया गया है।

 

फतेहगढ़ चूड़ियाँ- फतेहगढ़ चूड़ियाँ में घागरा वाला मंदिर, ताहली साहिब गुरुद्वारा, पंज मंदिर, गीति दास मंदिर, तालाब वाला मंदिर, गुरुद्वारा तखिया वाला और कई चर्च हैं।

पंज मंदिर --सरदार जयमल सिंह कन्हैया ने पंज मंदिर के साथ पक्का मंदिर तलाब बनवाया, जो अब भी खड़ा है। 180 साल पुराने मंदिर में पंजाब की विरासत है

तालाब वाला मंदिर --महाराजा रणजीत सिंह के बेटे खड़क सिंह की शादी इसी शहर में सरदार जयमल सिंह कन्हैया की बेटी चांद कौर से हुई थी। महाराजा रणजीत सिंह के मेहमानों की सुविधा के लिए, जयमल सिंह कन्हैया ने एक विशाल तालाब और 12 दरी बनवाई। बाद में, उनके पुत्र चंद सिंह कन्हैया ने अपने पुरोहित के अनुरोध पर, इस तालाब के पास एक मंदिर बनवाया, जिसे आज तालाब वाला मंदिर के नाम से जाना जाता है। रानी चंद कौर की एक समाधि उनकी मृत्यु के बाद पंज मंदिर के अंदर बनाई गई थी।

 

गगरनवाला मंदिर -फतेहगढ़ चुरियन में गगरनवाला मंदिर सबसे लोकप्रिय मंदिर है। इसका निर्माण चंद सिंह कन्हैया ने हिंदू आबादी के लिए किया था। मंदिर चंद सिंह कन्हैया द्वारा दान की गयी  स्वर्ण गागरें के लिए प्रसिद्ध है।

 

ध्यानपुर --बावा लाल दयाल एक संत थे। ध्यानपुर पंजाब में उनकी समाधी स्थल व् धाम है। शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यहाँ विशेष उत्सव होता है।

डेरा बाबा नानक-- बॉर्डर के उस पार गुरुद्वारा करतारपुर साहिब है तो वहीं बॉर्डर के इस पार गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक है। ये वही स्थान है जहां गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी (यात्रा) के बाद ध्यान लगाया था। यह गुरुद्वारा गुरदासपुर में है और भारत-पाकिस्तान के बॉर्डर से सिर्फ 1 किलोमीटर की दूरी पर है।

 सिक्ख गुरू श्री गुरू नानक देव जी का याद में बनाया गया डेरा बाबा नानक गुरदासपुर के पश्चिम में 45 किमी की दूरी पर है। ऐसा माना जाता है कि वे यहाँ 18 साल तक रहे। जिस जगह पर बैठकर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, उस जगह को 1800 ई. के आसपास महाराजा रणजीत सिंह ने चारों तरफ से मार्बल से कवर करवाया और गुरुद्वारे का आकार दिया। तांबे से बना सिंहासन भी दिया था। जिस अजीता रंधावा के कुएं पर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, वह कुआं आज भी वहां मौजूद हैं और लोग यहां से जल भरकर अपने घर ले जाते हैं। जिस जगह पर बैठकर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, उस जगह को 1800 ई. के आसपास महाराजा रणजीत सिंह ने चारों तरफ से मार्बल से कवर करवाया और गुरुद्वारे का आकार दिया। तांबे से बना सिंहासन भी दिया था। जिस अजीता रंधावा के कुएं पर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, वह कुआं आज भी वहां मौजूद हैं और लोग यहां से जल भरकर अपने घर ले जाते हैं।

गुरुद्वारा श्री चोला साहिब --मक्का जाने पर उनको दिये गये कपड़े यहाँ संरक्षित हैं। माघी के अवसर पर जनवरी के दूसरे सप्ताह में यहाँ भारी संख्या में श्रृद्धालु आते हैं। इसके नजदीक ही गुरूद्वारा तहली साहिब स्थित है। यह स्थान भारत-पाक सीमा के निकट रावी नदी के बाँयीं तट पर स्थित है।





श्री खाटू श्याम जी

  निशान यात्रा में झूमते   भक् ‍ त - भगवान खाटू श्याम की जयकार करते हुए तंग गलियों से गुजरते हुए आनंद मे खो जाते है   और ...