आपने कभी ऐसे मंदिर की कल्पना की है जो कभी एक स्तंभ पर घूमता था। एक
ऐसा मंदिर जिसका प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर नहीं, बल्कि पश्चिम दिशा में है।यहां बात हो रही है शिव भूमि भरमौर के तहत आने वाले छतराड़ी में स्थित
मां शिव शक्ति मंदिर की,
चंबा से भरमौर के रास्ते में पड़ता है छतराड़ी।
चम्बा से 40 कम दूर लूणी पूल
से एक सड़क उप्पर को छतराड़ी जाती है चारों ओर से घनी बर्फ से ढ़की पहाड़ियों, मंदिरों की बे-जोड़ नक्काशी, भित्तचित्र कला, मूर्तिकला, काष्ठ कला, हरी-भरी पहाड़ियां , छतराड़ी प्रकृति की तमाम अदाओं का साक्षी है यहां एक
बड़ा परिसर है, जिसके पोर-पोर में प्राचीनता का इतिहास साक्षात गवाह बनकर मौजूद है।
यहां माता शक्ति को समर्पित भरमौर घाटी का तीसरा प्रमुख मंदिर है,
।जिला मुख्यालय चंबा से छतराड़ी मंदिर की दूरी करीब 54 किलोमीटर है। यहां
तक पहुंचने के लिए देश के विभिन्न राज्यों के लोगों को पहले पठानकोट पहुंचना पड़ता
है। इसके बाद बस या टैक्सी के माध्यम से करीब 119 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय चंबा
पहुंचा जा सकता है। यहां से फिर छतराड़ी के लिए बस या टैक्सी के माध्यम से करीब 54
किलोमीटर का और सफर करना पड़ता है।
पहाड़ी शैली के स्लेटनुमा मंदिर के भीतर माता की मूर्ति जहां हर किसी
को अपनी ओर आकर्षित करती है।
इसका निर्माण भी राजा मेरु वर्मन ने करवाया था। मंदिर
में अष्टधातु की बनी आदि शक्ति की कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस बहुमूल्य मूर्ति
का निर्माण काल छठी-सातवीं शताब्दी का है। मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है। कुछ
लोग इसे हिमाचल का अमरनाथ कहकर भी पुकारते हैं।
जनश्रुति के अनुसार गुग्गा मिस्त्री ने एक स्तंभ पर घूमने वालेे मंदिर
का निर्माण करवाया। लेकिन, इस दौरान उसे मंदिर के द्वार को लेकर असमंजस था। इस पर माता
ने उसे आदेश दिया कि मंदिर को घुमाया जाए, जिस स्थान पर मंदिर का दरवाजा रुक जाएगा,
वहीं पर उसे स्थापित कर देना। इसी बीच जब मंदिर को घुमाया गया तो उसका दरवाजा पश्चिम
दिशा की ओर बैठा, जिसे माता का आदेश समझकर उसी स्थान पर स्थापित कर दिया गया।
मंदिर में मिस्त्री के प्रतीक के रूप में चिड़िया की आकृति मौजूद है
परिसर की काष्ठ कला व मिट्टी की दीवारों पर एक हजार वर्ष पुरानी कलाकृतियां
दुलर्भ हैं, मंदिर की
दीवारों पर देवताओं व असुरों का समुद्र मंथन का दृश्य दर्शाया गया है
इस मंदिर के निर्माण से संबंधित कई तरह की कथाएं जुड़ी हुई हैं
गुग्गा नामक कारीगर ने, जो सिर्फ एक हाथ का कारीगर था,मंदिर का निर्माण करीब 780 ई. पूर्व में किया। यह भी बताया जाता है कि इससे पहले वह ओलांसा के राणा के लिए एक अनोखा महल बना चुका था। राजा ने ऐसा सोचकर कि ऐसा महल कहीं और न बने गुग्गा का दाहिना हाथ काट दिया था। दुखी होकर जब वह चंबा लौट रहा था, तो उसे छतराड़ी में ही रात पड़ गई। रात को मां ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और मंदिर बनाने के लिए कहा। कारीगर ने मां से कहा कि मेरा एक ही हाथ है। माता ने उसे शक्ति दी और उसने ऐसा मंदिर बनाया, जो एक स्तंभ पर घूमता था।
अब प्रश्न यह था कि मंदिर का दरवाजा किस तरफ हो। माता के आदेश अनुसार मंदिर को घुमाया गया और जहां वह रुका, वहीं पर दरवाजा बनाया। मां ने गुग्गा से कहा कि तेरा दूसरा हाथ लगा देती हूं, गुग्गा ने कहा कि मां मुझे मुक्ति चाहिए। छत की आखिरी स्लेट लगाते ही वह गिर गया और वहीं उसे मुक्ति प्राप्त हुई।
जहां वह गिरा, वहां पर हवन कुंड बना हुआ है। एक अन्य कथा में यह भी बताया गया है कि यहां के लोग अढ़ाई किलोमीटर दूर से पानी लाते थे। एक बार मंदिर में एक महात्मा अपने शिष्यों के साथ तपस्या के लिए पधारे। महात्मा का एक शिष्य, जो पानी लाने गया था। काफी समय बीतने पर भी नहीं लौटा। ढूंढने पर महात्मा ने पाया कि वह एक भालू के हमले में मारा गया है। क्रोधित होकर महात्मा ने त्रिशूल उठाकर छत्तीस बार जगह-जगह मारा, जिससे 36 जगहों पर पानी निकला। इसके बाद यहां का नाम छतराड़ी पड़ गया।
एक अन्य दंतकथा के अनुसार चंबा के राजा शिकार के लिए यहां जंगलों में आया करते थे। एक बार गाय के सिंग पर बैठे पक्षी के स्थान पर राजा ने गाय को ही अपना निशाना बना डाला। गौ हत्या के निर्वाण के लिए राजा ने 36 लाहड़ी जमीन माता के नाम कर दी। जिस कारण इसका नाम छतराड़ी पड़ा। देवी की पूजा पुजारी गौड़ करते थे। जब पुजारी के घर कोई सूतक या मूतक पड़ता वह पूजा नहीं करता।
भरमौर से टूटरान जाति के ब्राह्मण को राजा ने जमीन देकर यहां बसाया। 36 लाहड़ी जमीन पर उपजे आनाज को देवी के नाम पर खर्च किया जाता था। मंदिर में मां शक्ति की मूर्ति के साथ भोले नाथ की मूर्ति भी स्थापित की गई है और इसलिए ही इसे शिव शक्ति मंदिर भी कहा जाता है। यहां के जंगलों में पहले राक्षस रहते थे। जो लोगों को तंग करते रहते थे। यात्रियों के लिए एकमात्र रास्ता जंगल से होकर जाता था। मां शिव शक्ति ने राक्षसों का नाश किया।
आज भी राक्षसों के मुखौटे मंदिर में रखे हैं। राधाष्टमी के दूसरे दिन यहां मेला लगता है। यह मेला मुख्य रूप से मंदिर के प्रांगण में आयोजित होता है और प्रदेश के कलाकार अपनी प्रस्तुति देकर प्राचीन परंपरा को उजागर करते हैं।
अगर पहरावे की बात करें तो टोपी,
चोला और डोरा गद्दी समुदाय का मुख्य पहरावा है। महिलाएं लुआंचड़ी के साथ डोरा पहनती
हैं। कुछ लोग इसे नुआचड़ी भी कहते हैं। लेकिन समय के बदलाव के कारण अब यह पहरावा केवल
विशेष अवसरों पर ही पहना जाता है।
महिलाओं के शृंगार में लुआंचड़ी-डोरा,
चंद्रहार, बाली, टिक्का, चैंक, गोजरू, मंगलसूत्र, टोके की भूमिका अहम होती है। यहां
की नाटी भी अपना अलग स्थान रखती है। घेरे में दाएं-बाएं आधा घूमकर घंटों नाचना इन नाटियों-नृत्यों
का सौंदर्य है जिनके नाम हैं घुरैई, लाहुली, डंडारस और धमाल।
अष्टधातु की 4 फ़ुट 6 इंच लम्बी शक्ति की एक मूर्ति है, जिसमें उनके हाथों
में भाला (यानि शक्ति, ऊर्जा), कमलपुष्प (जीवन), घंटी (आकाश, व्योम, दिक) और सर्प
(काल, मृत्यु) हैं