Tuesday 6 April 2021

पठानकोट-pathankot tourist places

 


पठानकोट के बारे में

पठानकोट एक प्राचीन शहर है, जो पहले गुरदासपुर जिले का एक तहसील था,

पठानकोट अपने मंदिरों, सुरम्य परिदृश्यों, प्रवासी पक्षियों के लिए लैंडिंग स्थल के हैसियत से प्रसिद्ध हैं। आधिकारिक तौर पर 27 जुलाई 2011 को पंजाब राज्य के एक जिले के रूप में घोषित किया गया था। पठानकोट पंजाब के प्रमुख शहरों में से एक है। दो नदियों द्वारा रावी और चक्की जो कि इसकी बहुत अधिक सुंदरता के लिए जिम्मेदार हैं



पठानकोट हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर के हिल स्टेशनों के लिए प्रवेश-मार्ग के रूप में कार्य करता है ।

शिवालिक पहाड़ियों की मनमोहक पृष्ठभूमि में स्थित पठानकोट -- शॉल बुनाई उद्योग के लिए जाना जाता था और अब पत्थर क्रेशर उद्योग और सेना पर निर्भर करता है।

प्राचीन साहित्य में शहर को नूरपुर राज्य की एक औपचारिक राजधानी ऑडुम्बरा कहा जाता है। इसका पुराना नाम पैथान था जो बाद में पठानकोट में बदल गया

 हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा घाटी के लिए एक खिलौना रेलगाड़ी प्रत्येक आगंतुक के लिए एक अनुभव होना चाहिए। कई पर्यटक आकर्षण प्रदान करते हुए, पठानकोट में घूमने के लिए कई जगहें हैं जो आनंदित छुट्टी अनुभव के लिए आदर्श हैं।

पठानकोट देश के बाकी हिस्सों के साथ रेल, सड़क और हवाई सेवाओं से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।

पठानकोट रेलवे स्टेशन --- पठानकोट में दो रेलवे स्टेशन हैं। एक पठानकोट शहर है और दूसरा पठानकोट कैंट जिसे पहले चक्की बैंक स्टेशन के नाम से जाना जाता था। अब सभी प्रमुख ट्रेनें पठानकोट कैंट में रुकती हैं

महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस टर्मिनल हिमाचल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और जम्मू और कश्मीर के प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है

जब आप इस दिव्य शहर का दौरा कर रहे हों, तो इन स्थानों को अपने यात्रा कार्यक्रम में देखने के लिए जोड़ें और यहाँ अपना अधिकांश प्रवास करें। ‘''




विरासत की झलक ------- पठानकोट में कई ऐतिहासिक स्थान हैं

वास्तुकला का बेजोड  नमूना --- गोपाल मंदिर -डमटाल –

 


 कांगड़ा के डमटाल में राम गोपाल मंदिर को संवत 1550 में गुरदासपुर (पंजाब) के पिंडोरी धाम के संत भगवान दास द्वारा बनवाया गया था। श्री राम गोपाल मंदिर को शुरू में धर्मताल कहा जाता था।

नूरपुर के राजा ने द्रष्टा का दौरा किया और एक बेटे के साथ आशीर्वाद पाने के लिए विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की। द्रष्टा ने राजा को आशीर्वाद दिया कि यह वंश सात पीढ़ियों तक केवल एक ही पुत्र रहेगा।

बाद में, राजा को एक पुत्र प्राप्त हुआ। अतिप्रिय और कृतज्ञ राजा ने डमटाल और उसके आस-पास की भूमि पर स्थित अपने किले को द्रष्टा को दान कर दिया। द्रष्टा ने भगवान राम की मूर्ति की स्थापना की और तब से यह स्थान डमटाल धाम के नाम से प्रसिद्ध है।


मंदिर के दाईं ओर दुर्गा माता का मंदिर है। इसके साथ ही मुख्य देवड़ी, गोपाल ड्योढ़ी, आध्यात्मिक देवदार, प्राचीन वट वृक्ष, बाईं ओर गद्दी मंदिर, शीर्ष पर गुरु निवास, दाईं ओर अन्य भंडारगृह, महात्माओं की समाधि हैं। उत्तर की ओर श्री राम गोपाल का मंदिर है। मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने तुलसी चौरा, गोशाला के पीछे महावीर की एक विशाल मूर्ति हाथ जोड़े हुए है।




 वर्तमान में, राज्य सरकार और कांगड़ा के उपायुक्त द्वारा मंदिर प्रबंधन चलाया जा रहा है



वास्तुकला का चमत्कार --- शाहपुरकंडी किला ---- खंडहर


ध्वस्त किलों की दीवारें सबसे खूबसूरत कहानियां सुनाती हैं।

आपको अपने गौरवशाली अतीत में ले जाने के लिए पठानकोट का अपना किला है शाहपुरकंडी किला 16 वीं शताब्दी में पठानिया शासकों के राजा भाओ सिंह द्वारा बनाया गया था और इसका नाम शाहजहाँ के नाम पर रखा गया था, जो रावी नदी के तट पर स्थित है और प्राकृतिक सुंदरता के बीच खड़ा है। शाहपुर-कंडी किला आज पूरी तरह से खंडहर हो गया है



लेकिन आप किले में स्तिथ  विरासत मंदिर की यात्रा का आनंद ले सकते हैं। किले का एक हिस्सा अब विश्राम गृह में परिवर्तित हो गया है। पुराना मंदिर पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। यहां आप अतीत की झलक देख सकते हैं





 स्थान: शाहपुर कंडी, पठानकोट शहर से सिर्फ 12 कि.मी


नूरपुर का किला - शानदार वास्तुकला का साक्षी


पूर्व में धमेरी किले के नाम से जाना जाने वाला यह किला 10वीं शताब्दी का है। नूरपुर किले को अंग्रेजों द्वारा नष्ट कर दिया गया था और फिर 1905 में एक भूकंप द्वारा इसे फिर से ध्वस्त कर दिया गया था।



यह किला आंतरिक गर्भगृह में स्थित अपने प्राचीन कृष्ण मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जिसे 16वीं शताब्दी में बनाया गया था

कहा जाता है कि यह एकमात्र स्थानों में से एक है। जहां भगवान कृष्ण और मीरा बाई की दोनों मूर्तियों की एक साथ पूजा की जाती है।



                          स्थान: नूरपुर, पठानकोट समय: सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे तक








बाथु की लड़ी -

भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में ठाकुरद्वारा बाथू या बाथू की लाडी के नाम से जाना जाने वाला 1200 साल पुराने मंदिरों का समूह है,

1970 की शुरुआत में पोंग बांध द्वारा बनाए गए महाराणा प्रताप सागर जलाशय में साल में लगभग आठ महीने तक डूबा रहता है। माना जाता है कि मंदिर का निर्माण हिंदू शाही वंश द्वारा 8 ईस्वी में किया गया था। परिसर में भगवान शिव और देवी पार्वती को समर्पित मुख्य मंदिर और 15 अन्य मंदिर हैं।

आम मान्यता के अनुसार, पांडवों (महाकाव्य महाभारत के पात्रों) ने यहीं से अपनी 'स्वर्ग की सीढ़ी' बनाने की कोशिश की थी, जिसे बनाने में वे सफल नहीं हो सके।

यह एक मोहक दृश्य है, मंदिर को देखकर जो ज्यादातर पानी में ढंका हुआ है और केवल कुछ ऊंचे खंभे ही बाहर निकलने की कोशिश करते देखे जा सकते हैं। नाव के माध्यम से इस अद्भुत आश्चर्य की यात्रा आपके मन पर एक आध्यात्मिक छाप छोड़ देगी

छोटा घल्लूघारा काहनूवान छंब शहीदी स्मारक

 

यह स्मारक गुरदासपुर के काहनूवान यह स्मारक में है- 10 एकड़ के स्मारक का निर्माण 1746 में हुए सिखों के पहले नरसंहार के दौरान मारे गए लोगों की याद में किया गया था। 11,000 से अधिक सिखों को मुगलों के शासनकाल में लखपत राय के नेतृत्व में काहनुवान छंब पर मार दिया गया था। इस नरसंहार को छोटा घल्लूघारा--"छोटा नरसंहार"- कहते है

छोटा घल्लूघारा वड्डा घल्लूघारा से अलग है, जो 1762 का बड़ा नरसंहार है

 

बटाला- गुरुद्वारा श्री कंध साहिब लोगों की आस्था का केंद्र है स गुरुद्वारे का इतिहास गुरु नानक देव जी की शादी से जुड़ा हुआ है। इतिहास बताता है कि यहां गुरु जी के ससुराल वालों मूल राज खत्री के परिवार ने विवाह के समय बारात को ठहराया था और यह घर कच्चा था जिसकी एक दीवार आज भी शीशे के फ्रेम जैसे थी वैसे ही खड़ी है। ग्रंथों के अनुसार वर्ष 1405 में जब गुरु जी अपनी शादी के मौके पर बटाला आए तो बारात का ठहराव एक घर में करवाया गया। जहां अब गुरुद्वारा कंध साहिब है तो नानक देव जी एक कच्ची मिट्टी की दीवार के साथ बैठे थे तो वधू पक्ष की एक बुजुर्ग महिला ने सोचा कि लड़कियां शरारती हैं। कहीं ऐसा न हो लड़कियां शरारत करके कच्ची दीवार को गिरा दें और दूल्हे को चोट आ जाए यां दूल्हा और दूल्हे का परिवार बुरा मान जाए। इसी बात को लेकर बुर्जुग माता ने गुरु जी से कहा कि बेटा थोड़ा सा दूसरी तरफ बैठ जाए नहीं ते कुड़ियां शरारत करते-करते आप पर दीवार गिरा देंगी। तो उसी समय गुरु जी ने मुस्कराकर कहा था माता यह दीवार युगो-युग नहीं गिरेगी। पांच सौ वर्ष बीत जाने के बावजूद मिट्टी की वह कच्ची दीवार आज तक गरुद्वारा श्री कंध साहिब में मौजूद है, जिसे दीवार को शीशे के केस में सुरक्षित कर दिया गया है।

 

मकबरा शमशेर खानहजीरा पार्कबटाला-- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग चंडीगढ़ के अनुसार इस तालाब का निर्माण मुगल सम्राट अकबर ने सन 1590 में करवाया था। दरअसल मानिकपुर के फौजदार शमशेर खान जो अकबर के रिश्ते में भाई थे, अपने फौजी दस्ते के साथ बटाला से गुजर रहे थे कि उनकी मौत हो गई। अकबर ने शमशेर खान को यहीं सपुर्दे खाक किया और उनकी कब्र पर एक भव्य मकबरा बनवा दिया जिसे लोग हजीरा के तौर पर जानते है। मकबरे के पास ही करीब 12 एकड़ का तालाब खुदवा दिया। महाराजा रंजीत सिंह के बेटे शेर सिंह ने बटाला पर 1780 से 1890 तक शासन किया था। शेर सिंह ने तालाब के निकट अपना महल बनवाया और तालाब में बारादरी का निर्माण करवाया। तालाब के बीचों बीच बनी 120 वर्ग फूट की इस इमारत के चारों तरफ तीन बड़ी-बड़ी खिड़किया है। कु ल 12 खिड़किया के कारण इसे बारादरी कहा जाता है।

 

बाबा नाम देव मंदिर घुमाण ---यह गुरुद्वारा ग्राम घुमान में- श्री हरगोबिंदपुर से 10 किलोमीटर, - बटाला से 26 किलोमीटर(मेहता श्री हरगोबिंदपुर मार्ग) की दूरी पर स्थित है। संत नामदेव का जन्म 1270 में पिता दामाशेटी और माता गोनाबाई के ग्राम नरस-वामानी (महाराष्ट्र के सतारा जिले में) में हुआ था। उनके माता-पिता विठ्ठल के भक्त थे। पूरा परिवार पंढरपुर चला गया जहाँ विठ्ठल (भगवान विष्णु) का मंदिर स्थित था। संत नामदेव भी भक्त बन गए। संत नामदेव की शादी 11 साल की उम्र में होने से पहले हुई थी और उनके 4 बेटे और एक बेटी थी। वे ज्ञानदेव के प्रभाव में आए और पंढरपुर की विठ्ठल की पूजा में अपना समय व्यतीत करने लगे। संत नामदेव गाँव घुमान में आए, जहाँ गुरुद्वारा दरबार साहिब स्थित है और यहाँ 17 वर्षों से अधिक समय से निवास किया जाता है। यहाँ उन्होंने तप किया -कुछ समय बाद नामदेव पंढरपुर लौट आए जहाँ 80 वर्ष की आयु में उन्होंने समाधि ली। उन की वाणी गुरू ग्रंथ साहिब में भी दर्ज है।

 

कादियां ---श्वेत मीनार - कादियां में अक्सा मस्जिद के पास एक पत्थर की मीनार है। इसका निर्माण अहमदिया आंदोलन के संस्थापक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के निर्देशन में किया गया था,

105 फीट -मीनार के तीन मंज़िल हैं, 92 steps , इसका निर्माण 1916 में पूरा हुआ था और तब से यह अहमदिया इस्लाम में एक प्रतीक और विशिष्ट चिह्न बन गया है।

 

अक्सा मस्जिद का निर्माण 1876 में अहमदिया आंदोलन के संस्थापक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के पिता मिर्ज़ा ग़ुलाम मुर्तज़ा ने किया था। अहमदिया प्रशासन द्वारा मस्जिद को 20 वीं शताब्दी में पुनर्निर्मित और विस्तारित किया गया था आज इसमें 15,000 लोगों के बैठने की क्षमता है

 

गुरु की मसीत  हरगोबिंदपुर ----गुरु की मसीत  या गुरु की मस्जिद ब्यास नदी के तट पर श्री हरगोबिंदपुर शहर में स्थित एक मस्जिद है जिसका निर्माण छठे सिख गुरु गुरु हरगोबिंद जी के अनुरोध पर किया गया था। मेहराबों पर लिखी आयतों की लकीरें मद्धम हो गई हैं, टाइल्स पर क़लमकारी से उकेरे गए बेल-बूटों के रंग जगह-जगह से उड़ गए हैं । पेड़ों के बीच से दिखते गुंबद इसके मस्जिद होने की गवाही साफ-साफ देते हैं. इसे यूनेस्को द्वारा एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में भी मान्यता प्राप्त है

'गुरु की मस्जिद' जिसकी रखवाली करते हैं निहंग सिख --- गुरु की मसीत   वो मस्जिद है जिसका बंटवारे के वक़्त फैली वहशत के बावजूद बाल भी बांका न हुआ और जिसकी हिफ़ाज़त अपनी बहादुरी के लिए जाने जानेवाले निहंग सिख आधी सदी से ज़्यादा से कर रहे हैं,

 

-गुरुद्वारा दमाद साहिब -- हरगोबिंदपुर -इस शहर को 1587 में पांचवें सिख गुरु, श्री गुरु अर्जुन देव जी द्वारा स्थापित किया गया था और उनके बेटे के नाम पर इसका नाम श्री हरगोबिंदपुर रखा गया था। गुरु अर्जुन देव जी की शहादत के बाद यह शहर खंडहर हो गया। छठे सिख गुरु, श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने 1629 में करतारपुर से आते हुए शहर का दौरा किया और शहर का पुनर्वास किया। कस्बे के एक अमीर खत्री भगवान दास ने ईर्ष्या महसूस की और गुरु जी को क्षेत्र खाली करने की चुनौती दी। एक मामूली झड़प हुई और भगवान दास मारे गए। भगवान दास के पुत्र रतन चंद ने चंदू के बेटे करम चंद के साथ जालंधर के फौजदार से मदद मांगी। फौजदार ने मुगल सैनिकों को श्री हरगोबिंदपुर भेजा। मुगलों और सिख सेना के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ था जिसमें रतन चंद और करम चंद दोनों मारे गए थे। कई सिखों ने शहादत जीती। उन सिख शहीदों की याद में गुरुद्वारा दमदमा साहिब का निर्माण किया गया है।

 

फतेहगढ़ चूड़ियाँ- फतेहगढ़ चूड़ियाँ में घागरा वाला मंदिर, ताहली साहिब गुरुद्वारा, पंज मंदिर, गीति दास मंदिर, तालाब वाला मंदिर, गुरुद्वारा तखिया वाला और कई चर्च हैं।

पंज मंदिर --सरदार जयमल सिंह कन्हैया ने पंज मंदिर के साथ पक्का मंदिर तलाब बनवाया, जो अब भी खड़ा है। 180 साल पुराने मंदिर में पंजाब की विरासत है

तालाब वाला मंदिर --महाराजा रणजीत सिंह के बेटे खड़क सिंह की शादी इसी शहर में सरदार जयमल सिंह कन्हैया की बेटी चांद कौर से हुई थी। महाराजा रणजीत सिंह के मेहमानों की सुविधा के लिए, जयमल सिंह कन्हैया ने एक विशाल तालाब और 12 दरी बनवाई। बाद में, उनके पुत्र चंद सिंह कन्हैया ने अपने पुरोहित के अनुरोध पर, इस तालाब के पास एक मंदिर बनवाया, जिसे आज तालाब वाला मंदिर के नाम से जाना जाता है। रानी चंद कौर की एक समाधि उनकी मृत्यु के बाद पंज मंदिर के अंदर बनाई गई थी।

 

गगरनवाला मंदिर -फतेहगढ़ चुरियन में गगरनवाला मंदिर सबसे लोकप्रिय मंदिर है। इसका निर्माण चंद सिंह कन्हैया ने हिंदू आबादी के लिए किया था। मंदिर चंद सिंह कन्हैया द्वारा दान की गयी  स्वर्ण गागरें के लिए प्रसिद्ध है।

 

ध्यानपुर --बावा लाल दयाल एक संत थे। ध्यानपुर पंजाब में उनकी समाधी स्थल व् धाम है। शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यहाँ विशेष उत्सव होता है।

डेरा बाबा नानक-- बॉर्डर के उस पार गुरुद्वारा करतारपुर साहिब है तो वहीं बॉर्डर के इस पार गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक है। ये वही स्थान है जहां गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी (यात्रा) के बाद ध्यान लगाया था। यह गुरुद्वारा गुरदासपुर में है और भारत-पाकिस्तान के बॉर्डर से सिर्फ 1 किलोमीटर की दूरी पर है।

 सिक्ख गुरू श्री गुरू नानक देव जी का याद में बनाया गया डेरा बाबा नानक गुरदासपुर के पश्चिम में 45 किमी की दूरी पर है। ऐसा माना जाता है कि वे यहाँ 18 साल तक रहे। जिस जगह पर बैठकर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, उस जगह को 1800 ई. के आसपास महाराजा रणजीत सिंह ने चारों तरफ से मार्बल से कवर करवाया और गुरुद्वारे का आकार दिया। तांबे से बना सिंहासन भी दिया था। जिस अजीता रंधावा के कुएं पर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, वह कुआं आज भी वहां मौजूद हैं और लोग यहां से जल भरकर अपने घर ले जाते हैं। जिस जगह पर बैठकर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, उस जगह को 1800 ई. के आसपास महाराजा रणजीत सिंह ने चारों तरफ से मार्बल से कवर करवाया और गुरुद्वारे का आकार दिया। तांबे से बना सिंहासन भी दिया था। जिस अजीता रंधावा के कुएं पर गुरु नानक देव जी ने ध्यान लगाया था, वह कुआं आज भी वहां मौजूद हैं और लोग यहां से जल भरकर अपने घर ले जाते हैं।

गुरुद्वारा श्री चोला साहिब --मक्का जाने पर उनको दिये गये कपड़े यहाँ संरक्षित हैं। माघी के अवसर पर जनवरी के दूसरे सप्ताह में यहाँ भारी संख्या में श्रृद्धालु आते हैं। इसके नजदीक ही गुरूद्वारा तहली साहिब स्थित है। यह स्थान भारत-पाक सीमा के निकट रावी नदी के बाँयीं तट पर स्थित है।





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