कामाख्या देवी मंदिर गुवाहाटी
51 शक्तिपीठों में एक माँ कामाख्या मंदिर तंत्र, मंत्र, विद्या और सिद्धि का प्रमुख केन्द्र माना जाता है। कामाख्या शक्तिपीठ सभी शक्तिपीठों में सर्वोत्तम माना जाता है। इस मंदिर में देवी दुर्गा या मां अम्बे की कोई मूर्ति या चित्र आपको दिखाई नहीं देगा। बल्कि मंदिर में एक कुंड बना है जो कि हमेशा फूलों से ढका रहता है। इस कुंड से हमेशा ही जल निकलते रहता है। चमत्कारों से भरे इस मंदिर में देवी की योनि की पूजा की जाती है।
मंदिर के पास एक तिराहे पर आप को उतारा जाता है यहाँ पर फ्री पार्किंग तथा दो तीन वेजीटेरियन होटल है -चाय तथा जलेबी टपरी के इलावा एक छोटा सा बाजार है जहाँ आपको पूजा का समान मिल जाता है मंदिर जाने के लिए आपको यात्रा टिकट लेनी है फ्री टिकट इसी तिराहे के पास उपलब्ध हैमंदिर अन्दर स्पेशल टिकट मिलती है जिसकी कीमत केवल 50 1रुपए
है जिसके लिए सुबह ही लाइन लग जाती है क्यों कि स्पेशल टिकट बहुत कम इशू किये जाते
है मंदिर ट्रस्ट द्वारा यात्रियो लिए धर्मशाला भी चलायी जाती है जिसकी बुकिंग ऑनलाइन
कर सकते है -परन्तु इसकी कंडीशन बहुत ख़राब है
कामाख्या का नाम कैसे पड़ा
कलिका पुराण अनुसार शिव तथा पारवती काम पूर्ति हेतु यहाँ आए इसलिए नाम काम +आख्या
पड़ा
एक अन्य विचारधार अनुसार
khasi लोग अपनी देवी को
-ka -mei kha -कहते है बोड़ो समुदाय भी अपनी देवी को
--kham-maikha कहते है हो सकता है यह नाम बिगड़ कर कामख्या बन गया हो
वैसे कामाख्या देवी को और नामों से भी जाना जाता है जैसे
शिवाख्य ,ब्राहमख्या,हंसख्या ,
मदिर तीन हिस्सों मे बना है अंतराल ,मंडप,तथा गर्भ गृह - अंतराल मंडल जहा आयताकार है गर्भ गृह अष्ट कोणी है -मंडप 12
खम्बो पर खड़ा है
mandap
wall decorated with murtis
गर्भ गृह को मनोभावा गुहा भी कहते है जो 2. 5 मीटर गहरी है
मंदिर की दीवारों पर लार्ड ईशान ,सूर्य ,विष्णु,कामदेव की मुर्तिया बनाई गयी है गर्भगृह
फूलो धार्मिक चिन्हों से सजाया गया है
यह मुर्तिया
11th 12th ad बीच बनाई गयी थी
देवी भगवत पुराण ,गरुड़ पुराण ,स्कन्द पुराण,तहत 10th ad मे रचित कलिका पुराण मे शाक्त तथा तांत्रिक कल्ट के असम मैं पनपने पर प्रकाश डाला गया है
यहाँ लगनेवाले अम्बूवाची मेले का अलग ही महत्व है।हर साल यहां अम्बूवाची मेले के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। कहा जाता है की पानी का यह लाल रंग माँ कामाख्या देवी के रजस्वाला होने के कारण होता है।
हर साल 22 जून से 26 जून के बीच लगनेवाले अंबुवाची मेले में दुनियाभर से तंत्र साधक, नागा साधु,अघोरी, तांत्रिक और शक्ति साधक जमा होते है। माता के रजस्वाला के दौरान तीन दिन के लिए मंदिर के कपाट बंद रहते है। तीन दिन बाद दर्शन के लिए यहां भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। यहां आने वाले भक्तों को अजीबो गरीब प्रसाद दिया जाता है। कामाख्या देवी मंदिर में प्रसाद के रूप में लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है।
बताया जाता है कि जब मां को तीन दिन का रजस्वला होता है, तो सफेद रंग का कपड़ा मंदिर के अंदर डाल दिया जाता है। तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल हो जाता है। इस कपड़े को अम्बूवाची वस्त्रो कहते है। इसे ही भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।
1.
तांत्रिकों
का प्रमुख सिद्धपीठ माना जाता है। कुछ संप्रदायों की कुल देवी भी हैं।
2.
यहां
पर देवी सती की योनि गिरी थी। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित है।
3.
कामाख्या
देवी की सवारी सर्प है। कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है। यह
मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में टापू पर स्थित है।
4.
यह
मंदिर 3 हिस्सों में बना है। इसका पहला हिस्सा सबसे बड़ा है, जहां पर हर शख्स को जाने
नहीं दिया जाता है। दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं, जहां एक पत्थर से हर
समय पानी निकलता है। कहते हैं कि महीने में एक बार इस पत्थर से खून की धारा निकलती
है। ऐसा क्यों और कैसे होता है, यह आज तक किसी को ज्ञात नहीं है। मान्यता है कि 3 दिन
देवी मासिक धर्म से रहती हैं।
5.
अनोखा
उपहार : परंपरा अनुसार 3 दिन मासिक धर्म के चलते एक सफेद कपड़ा माता के दरबार में रख
दिया जाता है और 3 दिन बाद जब दरबार खुलते हैं तो कपड़ा लाल रंग में भीगा होता है जिसे
उपहार के रूप में भक्तों को दे दिया जाता है
6.
प्रतिवर्ष आषाढ़ माह में यहां पर अंबूवाची का मेला
लगता है। पास में स्थित ब्रह्मपुत्र नदी का पानी 3 दिन के लिए लाल हो जाता है। ऐसा
कहते हैं कि पानी का ये लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है।
7.
अम्बूवाची
के समय यहां शंख और घंटी नहीं बजाते भक्त अन्न और जमीन के नीचे उगने वाली सब्जी और
फलों का त्याग करते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत जरूरी है
यहां मनाए जाने वाले एक और बहुत खास पर्व के बारे में "देवधूनी मेला"। जी हां देवधूनि बोलिए या देवध्वनि या फिर देवधानी। ये अंबुबाची के बाद मां कामाख्या मंदिर में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा पर्व है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है।
ये पर्व मां मनसा देवी को समर्पित है। ये वार्षिक अनुष्ठान सदियों पहले से चला आ रहा है। हर वर्ष सावन महीने के अंत और भाद्रपद महीने की शुरुआत में तीन दिन तक देवधुनि उत्सव मनाया जाता है जिसमे मां के साधक जिनको स्थानीय भाषा में "देवधा" कहा जाता है वो देव और देवियों के भाव को धारण कर नृत्य करते है।श्रद्धालु इस दौरान इन देवधाओं को कबूतर, बकरियां आदि भी समर्पित करते है और ये उनका रक्तपान करते है। ये देवधा नंगी तलवारों पर भी नृत्य करते है।
इन देवधाओं द्वारा जिंदा कबूतरों का रक्तपान करते और नंगी तलवारों पर इनको नृत्य करते देखना कमजोर दिल वालों को विभस्त कर सकता है।
जनश्रुतियां कहती हैं कि यहां की सिद्धियों में इंसान को जानवर में बदल देने की शक्ति है
यहाँ मान्यता है, कि जो भी बाहर से आये भक्तगण जीवन में तीन बार दर्शन कर लेते हैं उनके सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
Umananda Temple-
उमानंद मंदिर गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के केंद्र में मोर द्वीप Peacock Island के शीर्ष पर स्थित है, इसे दुनिया के सबसे छोटे बसे हुए नदी द्वीप के रूप में जाना जाता है। कलिका पुराण के अनुसार, भगवान शिव ने इस स्थान पर 'भस्म' (राख) बिखरी, उन्होंने ज्ञान को 'पार्वती' को भी प्रसारित किया।
यह भी माना जाता है कि वह समय जब भगवान शिव इस पहाड़ी पर अपने ध्यान में व्यस्त थे, भगवान कामदेव ने अपना योग संभाला, उसके बाद उन्हें शिव के क्रोध की आग से राख में जला दिया गया, और इसलिए पहाड़ी का नाम 'भस्मकाला' रखा जिस पर्वत पर उमानंद मंदिर बना है उसे भस्मकल के नाम से जाना जाता है। आदि-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पहले गुवाहाटी शहर के पास ब्रह्मपुत्र 'नदी' के बीच में द्वीप के शीर्ष पर स्थित महाभैरव उमानंद के दर्शन करना आवश्यक है। चूंकि प्रत्येक शक्तिपीठ में अलग-अलग भैरव होते हैं, और माता के साथ-साथ उनके दर्शन भी करने चाहिए। उसके बाद ही माता शक्ति के दर्शन पूर्ण माने जाते हैं।
वर्ष 1694 में जब अहोम राजा राजा-गडधर सिंह ने इस मंदिर का निर्माण 'भस्मकाला' नामक पहाड़ करवाया तब असम में कोई ब्रहमण परिवार निवास नहीं करता था. इसी लिए उत्तर प्रदेश के कन्नोज से दो परिवार आये थे और आज तक उन्हीं की पीढ़ी इस मंदिर का देख रेख करती है. मंदिर का नियम था कि पहाड़ पर किसी भी पुजारी का परिवार नही रहेगा और आज भी इस नियम का पालन किया जाता है. आज भी इस मंदिर में कुल 16 पुजारी हैं और सभी के परिवार यहाँ से 20 किलो मीटर दूर चान्ग्सारी में रहता है.
मंदिर तक पहुँचने के लिए सब से पहले आप को 15 से 20 मिनट तक यात्रा नौका से तय करनी होगी.
उमानंद मंदिर का नाम उमानंददावलोई रखा गया था, हालांकि, मंदिर को 1897 में विनाशकारी द्वारा नष्ट कर दिया गया था। इसलिए, यह एक समृद्ध व्यापारी द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था मंदिर के पुजारी बताते हैं की द्वापर युग में गुवाहाटी को प्रागज्योतिष पुर के नाम से जाना जाता था. उस समय ब्रहमपुत्र इस पहाड़ी के उत्तर की ओर से बहता था. दाहनी ओर एक सौदागर रहता था जिस के पास बहुत सारे जानवर थे. उन्हीं जानवरों में एक कामधेनु हमेशा दूध देने के लिए इस पहाड़ पर चली आती थी. जब सौदागर ने उसका पीछा किया तब देखा की वह एक बेल के पेड़ के नीचे दूध देती है. सौदागर ने उस स्थान की खुदाई की तो वहां शिवलिंग दिखाई दिया. उसी रात सौदागर के सपने में भगवान शिव ने दर्शन दिए और वहाँ मंदिर बनाने का आदेश दिया.
उग्रतारा सिद्ध शक्तिपीठ
मंदिर गुवाहटी शहर से करीब 8 किलोमीटर दूर स्तिथ है जो लोग कामाख्या मंदिर के दर्शन के लिए आते है उनके लिए आवश्यक जानकारी यह है कि उग्रतारा मंदिर एक शक्तिपीठ है
एक अन्य कथा के अनुसार, मृत्यु के देवता यम ने भगवान ब्रह्मा से शिकायत की कि पाप करने के बावजूद कामरूप के लोगों को नरक नहीं भेजा जाता भगवान ब्रह्मा ने शिकायत को विष्णु जी के पास पहुंचाया जो फिर इसे शिव के पास ले गए। भगवान शिव ने तब देवी उग्रतारा को कामाख्या में रहने वाले सभी लोगों को भगाने का आदेश दिया। सेना के शोर से ऋषि वशिष्ठ का ध्यान भंग हो गया और उन्होंने देवी उग्रतारा और भगवान शिव को श्राप दिया। तब से, सभी वैदिक साधनाओं को कामरूप में छोड़ दिया गया और देवी उग्रतारा वामाचार साधना की देवी बन गईं देवी उग्रतारा बौद्ध धर्म से भी जुड़ी हुई हैं। यह एक शाक्त मंदिर के रूप में लोकप्रिय है
5.30 AM to 1 PM in the afternoon and 5:30 PM till 8 PM
v Aswaklanta Temple, Guwahati, -
गुवाहाटी का कामाख्या मंदिर उग्रतारा मंदिर जहाँ शाक्त परम्परा से जुड़ा मंदिर है उमानंदा मंदिर शैव परम्परा से जुड़ा है वही पर अष्टकलानता मंदिर वैष्णव परम्परा से जुड़ा हुआ है
अश्वकलांता मंदिर के मुख्य मंदिर परिसर में दो मंदिर स्थापित हैं। एक पहाड़ी की तलहटी पर स्थित है - कुर्मायनारदन मंदिर और दूसरा मंदिर पहाड़ी की चोटी पर स्थित है, जिसका नाम है- अनंतसयी।
लोककथाओं के अनुसार जब कृष्ण नरकासुर को मारने के लिए उसकी खोज कर रहे थे तो रास्ते में भगवान कृष्ण के घोड़े को उसी स्थान पर थकान महसूस हुई, जहां अश्वकलांता मंदिर स्थित है। अस्वा का अर्थ है 'घोड़ा' और असमिया भाषा में क्लांत का अर्थ है 'थका हुआ'। इसलिए इस स्थान का नाम अश्वकालान्त पड़ा।
एक और पौराणिक कहानी anusar योद्धा 'अर्जुन' के घोड़ों को युद्ध के दृश्य से दूर रहने के लिए इस स्थान पर राजी किया गया था ताकि उनके पुत्र अभिमन्यु की हत्या की जा सके। असमिया में, युद्ध में एक साजिश रची गई और इसे 'अभिक्रांत' कहा गया। जिस स्थान पर मंदिर स्थित है, उसका नाम 'अश्व-क्रता' रखा गया, जो बाद में इन शब्दों से लोकप्रिय भाषा में अश्वकालान्त बन गया।
1897 में असम के भूकंप ने मंदिर परिसर में कहर बरपाया। हालाँकि, इसकी मरम्मत 1901 में असम के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन के संरक्षण में की गई थी।
मंदिर में एक भगवान जनार्दन की और दूसरी भगवान अनंतसाई विष्णु की मूर्ति है । अनंतसाई विष्णु की छवि ग्यारहवीं शताब्दी की है एक बेहतरीन कला नमूना है । सुबह 7 बजे और शाम 5 बजे
जहाँ कामख्या तथा उग्रतारा मंदिर शाक्त सम्प्रदाय उमानंदा शैव सम्प्रदाय को समर्पित मंदिर है वही डोल गोबिंदा वैष्णव सम्प्रदाय को समर्पित मंदिर है जिसमे कृष्ण जी के जीवन पर चित्रों के माध्यम से प्रकाश डाला गया है
मंदिर भी अंकुरित दालों फलों तथा खीर का प्रशाद बनता जाता है
मंदिर बहुत ही विशाल प्रागण मे स्तिथ है
डौल गोविंदा मंदिर, - मंदिर के पीठासीन देवता की मूर्ति नलबाड़ी के पास स्थित संध्यासर नामक पवित्र स्थान से स्वर्गीय गंगा राम बरूआ द्वारा यहां लाया गया था। डौल गोविंदा मंदिर के वर्तमान अवशेषों की पहली संरचना डेढ़ सौ साल से भी पहले बनाई गई थी, लेकिन इसे 1966 में फिर सेपुनर्निर्मित किया गया था
सुबह 7.00 बजे और रात 8.00 बजे ।
PHOTOGARPHY STRICTLY PROHIBITED
v Basistha Temple यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है 1764 में यह अहोम राजा-राजेश्वर सिंह द्वारा बनाया गया । राजा-राजेश्वर सिंह ने आश्रम निर्माण के लिए 835 एकड़ भूमि का उपहार भी दिया। एक आश्रम का निर्माण किया गया जो कि मेघालय नदी के तट पर शिव मंदिर के पास स्थित है। बाद में, यह वशिष्ठ और बहनी भारलू की नदियां बन गई जो शहर के मध्य से बहती है।
दीर्घेश्वरी मंदिर
एक और आकर्षण है जिसे अहोम राजा स्वर्गदेव शिव सिंहा ने 1714 और 1744 ई. के बीच बनवाया था। ऐसा कहा जाता है कि यह एक शक्तिपीठ है यद्यपि इष्टदेव देवी दुर्गा हैं,
लेकिन पहाड़ी की चट्टानों में अन्य देवी-देवताओं की कई छवियां उकेरी गई हैं। स्थानीय लोग इसे कामाख्या मंदिर के बाद अगला सबसे पवित्र स्थान मानते हैं।
Assam State Museum
असम राज्य संग्रहालय की स्थापना कामरूप अनुसंधान समिति द्वारा की गई थी और 21 अप्रैल, 1940 को अविभाजित असम के तत्कालीन गवर्नर सर रॉबर्ट रीड द्वारा खोला गया था।
प्रांतीय संग्रहालय को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया था। 1953 में असम क और शिक्षा विभाग के संग्रहालय और पुरातत्व के अधीन रखा गया।
इसके बाद, व्यवस्थित और कुशल प्रबंधन के लिए 1983 में दो अलग-अलग संस्थाएं यानी संग्रहालय और पुरातत्व निदेशालय बनाए गए।
TICKETS रु. 20/- वयस्कों के लिएरु. 10/- छात्रों के लिए 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चे- निःशुल्क रु. 100/- विदेशियों के लिए
साधारण कैमरा - रु.50/-
वीडियो कैमरा - रु. 500/
10 बजे से शाम 5 बजे तक जनता के लिए खुला रहता है। अवकाश, महीने का दूसरा और चौथा शनिवार।
एक गैलरी असम के प्रमुख सिंगर भूपेन हज़ारिका को समर्पित है वहाफोटोग्राफी की इज़ाज़त नहीं
Assam State Zoo cum Botanical Garden
v Guwahati
Planetarium
v Purva Tirupati
Sri Balaji Temple
v Srimanta
Sankaradeva Kalakshetra
v एक आश्रम का निर्माण किया गया जो कि मेघालय नदी
के तट पर शिव मंदिर के पास स्थित है। बाद में,
यह वशिष्ठ और बहनी भारलू की नदियां बन गई जो
शहर के मध्य से बहती है।
1. खार--सब्जियों और दालों से बनाया जाता है, जिसमें मुख्य सामग्री मांस, मछली या बत्तख होती है। इसे केले के पेड़ की राख से पानी छानकर तैयार किया जाता है, जिसे कोला खार (यह नाम असमिया शब्द केले, "कोला" या "कोल" से लिया गया है) कहा जाता है। ओमिता (पपीता) खार असमिया व्यंजनों में से एक प्रमुख व्यंजन है। 2. आलू पिटिका------ पिटिका या मसले हुए आलू गुवाहाटी के लोगों का एक और खास व्यंजन है। इसे सरसों के तेल, कच्चे प्याज और हरी मिर्च से सजाया जाता है। मसले हुए आलू के अलावा, इसे भाप में पकाई या भूनी हुई सब्जियों से भी बनाया जाता है 3. पिठ्ठा------ चावल के आटे या गेहूं के आटे के घोल से बनाया जाता है, जिसे आकार दिया जाता है और नमकीन या मीठी सामग्री से भरा जाता है। जब भरा जाता है तो उसे पूर कहा जाता है और पिठ्ठे की थैली को खोल कहा जाता है। 4. कोमोलर खीर-- चावल से बनी लेकिन तीखे संतरे के स्वाद के साथ। संतरे के गूदे को मिलाने से यह और भी स्वादिष्ट हो जाता है।
5. नारिकोल पिठा--- भुने हुए नारियल, आटे और चीनी से बना एक और मीठा व्यंजन,
6. नारिकोलर लारू-नारियल के लड्डू
7. रेशम के कीड़े-- आरजी रोड पर गुवाहाटी क्लब में इनामसिंग में।
8. पयाश-पयाश या पायस एक चिपचिपा चावल का हलवा है, जो रबड़ी जैसा होता है, जिसे ताड़ की चीनी से मीठा किया जाता है, इलायची और केसर से हल्का स्वाद दिया जाता है और सूखे मेवों और मेवों से सजाया जाता है। इस मीठे व्यंजन को बनाने में जोहा चावल का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें घी, सूखे मेवे और दूध भरा होता है। धीमी आंच पर पकाया जाता है।
9. कुमुरा के साथ हान (बत्तख) - बत्तख का मांस आम तौर पर विशेष अवसरों के लिए आरक्षित एक व्यंजन है।
10. ऊ खट्टा-यह एक मीठी और खट्टी चटनी है जो हाथी के सेब (ऊ) और गुड़ से बनाई जाती है।
11. पारो मान्क्षो--यह व्यंजन मूलतः कबूतर का मांस है, जिसे कोल्डिल या केले के फूलों से और भी स्वादिष्ट बनाया जाता है, जो इसके अनोखे स्वाद को और भी बढ़ा देता है।
12. बान्हगाजोर लागोट कुकुरा--बांस की टहनियों और दाल के साथ पकाया गया चिकन।