Saturday 7 May 2022

देवास-माता टेकरी

देवास- अर्थात -जहां है देवी का वास-

मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर से मात्र 35 किमी उज्जैन – 36 किमी स्थित है, चामुंडा माता की नगरी देवास देवास की माता टेकरी को रक्त पीठ माना जाता है।


यहां दक्षिण दिशा में मां तुलजा भवानी और उत्तर दिशा में मां चामुंडा विराजमान हैं। तुलजा भवानी -इन्हे बड़ी माताजी भी कहा जाता है। होल्कर घराने की कुलदेवी है ---टेकरी तक पहुँचने का पहला रास्ता सीढ़ियों का है। दूसरा है Cable Car -रोपवे का आने और जाने का टिकट मात्र 118 रूपये है।  पांच साल से काम उम्र के बच्चों का कोई टिकट नहीं लगता।

तुलजा भवानी हिन्दू देवी दुर्गा का ही एक रूप माना जाता है और उत्तरी गुजरात, तेलंगाना, उत्तरी कर्नाटक, पश्चिमी राजस्थान और पंजाब के राजपूतों द्वारा भी पूजा की जाती है।


जनश्रुति अनुसार -एक बार किसी बात पर दोनों माताएं एक दुसरे से रुष्ट हो गई। बात इतनी ज्यादा बढ़ गई कि दोनों अपने स्थान छोड़ कर टेकरी से जाने लगी। बड़ी माता पाताल में समाने लगी, जबकि छोटी माता टेकरी उतरने लगी। भैरू बाबा और हनुमान जी उन्हें समझने के लिए आये। दोनों का रौद्र रूप देखकर एक बार उनके भी कदम डगमगा गए, लेकिन अंत में वे माताओं को समझाने में सफल हो गए। तब तक बड़ी माताजी आधी पाताल में समा चुकी थी और छोटी माताजी बहुत नीचे उतर चुकी थी, लेकिन वे दोनों वही रुक गई।

टेकरी पर कालका माता, अन्नपूर्णा माता का मंदिर, खो-खो माता, अष्टभुजादेवी, दक्षिणाभिमुखी हनुमान मंदिर, कुबेर माता का मंदिर भी है।


दक्षिणाभिमुखी हनुमान मंदिर


अन्नपूर्णा माता का मंदिर


माँ चामुंडा देवी को छोटी माता जी भी कहा जाता है। मां चामुंडा की प्रतिमा चट्टान में उकेरकर बनाई गई है। जो 10वीं शताब्दी की बताई जाती है। मां चामुंडा पूर्ववर्ती पवार राजवंश की कुलदेवी हैं। नाथ संप्रदाय के इतिहास में भी इस मंदिर का जिक्र है। मान्यता अनुसार दोनों माताओं की प्रतिमाएं यहाँ जागृत अवस्था में हैं



यहां योगेंद्र शीलनाथ जी की धूनी भी है।


देवास में मराठी राजवंशों ने शासन किया है। पहला घराना है होल्कर और दूसरा घराना है पंवार। और पंवार घराने ने छोटी माता अपनी कुल देवी माना है। 


एक पुस्तक में वर्णन मिलता है कि उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने वैराग्य होने पर इसी माता टेकरी पर तप किया था।



टेकरी पर एक करीब दो हजार वर्ष पुराना  गुप्त सुरंग है, माना जाता है। इस सुरंग का निर्माण उज्जैन और देवास के बीच गुप्त रूप से आने और जाने के लिए किया जाता था। इस सुरंग की लम्बाई करीब 45 किमी मानी जाती है। इसका दूसरा सिरा उज्जैन स्थित भर्तहरि गुफा के समीप निकलता है।


ज्यादातर इतिहासकार शक्ति पूजा की शुरुआत गुप्ता काल 280-550 ad मई मानते है परन्तु शक्ति-पूजा का  सर्वप्रथम वर्णन मार्कण्डेयपुराण के देवी-महात्म्य खण्ड -दुर्गा-सप्तशती में मिलता है। दुर्गा सप्त सती - में देवी को विभिन्न रूपों में -- मौलिक गुणों जिन्हें तमस रजस, और सत्व के साथ वर्णित किया गया है । हालाँकि मार्कण्डेयपुराण की रचना से बहुत पहले, ऋग्वेद के देवी-सूक्त के आठ मन्त्रों में देवी-उपासना की गई 

महाभारत में  देवी दुर्गा के रूप में देवी पूजा का संदर्भ मिलता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले देवी माता से प्रार्थना करने की सलाह दी।

 कनोपनिषद में- वह देवी उमा के रूप में  shiv की दिव्य पत्नी के रूप में प्रकट होती हैं युधिष्ठिर ने अपने वनवास के दौरान कष्टों से राहत के लिए देवी माता की पूजा की

देवी भगवत पुराण की रचना के साथ  यह अपनी चर्म सीमा पर  दसवीं से बारवी शताब्दी तक पहुंची  
शाक्त-सम्प्रदाय, 16वीं सदी के उत्तरार्ध में अपना प्रभुत्व खोने लगा था, 16-17वीं सदी के महाकवि मुकुन्दराम की चण्डीमंगल नामक रचना को अभूतपूर्व प्रसिद्धि मिलने लगी!

वर्तमान युग की शक्ति-पूजा-पद्धतियों का प्रसार राजपूतों द्वारा किया गया, रोचक बात है कि राजपूतों ने शिव के त्रिशूल को देवी का चिह्न माना! प्रारम्भिक दौर की नवरात्रियों में, देवी-प्रतिमा का स्थान राजपूताना तोपों ने ले रखा था, जिनपर त्रिशूल चिह्न टाँके गए तथा कई-कई दीप जलाकर शक्ति का पूजन किया गया। प्रजा ने भी राजपरिवारों का अनुसरण किया, परन्तु उनके लिए तोपें कहाँ सुलभ थीं? ऐसे में, देवी दुर्गा की प्रतिमा का प्रवेश हुआ। मराठों की सत्ता के साथ साथ उनकी आराध्या माता तुलजा-भवानी के जयघोषों का भी साक्षी रहा है।


 

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